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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष देव, शास्त्र, गुरुभक्ति धरेय, वसुविध नित सो पूज करेय । विधिसों देय सुपात्रे दान, जिम चहुँ विध भाषो भगवान ॥१८ तीन दीन जन करुणा करी, पोखै नित प्रति ता सुन्दरी। भूपति चित मनुहारी सोय, तासम त्रिया अवर नहिं कोय ॥१९ दम्पति सुख नानाविध जिते, पुण्य उदै भोगत हैं तिते । जिम सुरपति इन्द्रानी जान, तिम श्रेणिक चेलना बखान ।।२० महामंडलेश्वर को राज, आसन चामर छतर समानु । भूप चिह्न धरि सभा जु राय, बैठो अब सुनिये जो धाय ॥२१
ढाल चाल एक दिवस मध्य बन मांहीं, भ्रमतो बनपालक आंही। निज सम्बन्धी पर जाय, जिय बैर विरुद्ध जु थाय ॥२२ ते एक क्षेत्र के मांहीं, ढिगे बैठे केलि कराहीं। घोटक महिष इक जागा, बैठे धरि चित्त अनुरागा ॥२३ मूषा को हरष बिलावे, हिय में गहि प्रीत खिलावै।। अहि नकुल दुई इकठा ही, मैत्रीपन अधिक करांहीं ॥२४ इत्यादिक जीव अनेरा, निज वैर छोडि है मेरा। बैठे लखि के बनपाला, अचरज चिन्ता धरि हाला ॥२५ मन मांहि विचारै एमे, एह अशुभ कीधो खेमे । इम चिन्तत भ्रमण करांहीं, बनपालक बन के मांही ॥२६ विपुलाचल गिरि के ऊपर, धरणेश सुरेश मही पर। बहुविध जुतदेव अपारा, जय जय वच करत उचारा ॥२७ दसहूँ दिश पूरित धाई, अपने चित अति हरषाई । अन्तिम तीर्थकर एवा, श्री वर्द्धमान जिनदेवा ।।२८ समवादि शरण लखि हरषित, धारो विचार इम चिन्तित । इह परस्परे नु चिरकाला, परजाय वैर दरहाला ।।२९ सब मिल बैठे इकठाना, देखे में ऐ अभिरामा। इस महापुरुष को जानी, माहातम मन में आनी ॥३०
सर्वया इकतीसा मृगी सुत बुद्धिते खिलावै सिंह बाल कों, बघेरा कों सुपुत्र गाय सुत जान परसे। हंस सूनक बिलाव हित धारकै खिलाव, मोरनी सरप परसत मन हरषै ॥ इन सब जन्तुन को जन्मजात वैर सदा, भए मद गलित उखारो दोष जरसै। सम भाव रूप भए कलुष प्रशमि गए, क्षीण मोह बर्धमान स्वामी सभा दरसे ।।३१
दोहा जय जय रव को कान सुन, बनपालक तत्काल । षट्तुि के फल फूल ले, कर धर भेट रसाल ॥३२ चल्यो नृपति दरबार कों, मन में घरत उछाव । जा पहुंचे तिसही धरा, जहँ बैठो नरराव ॥३३ सिंहासन नग जड़ित पर, तिष्ठे श्री भूपाल । महामंडलेश्वर करहि, फलदीने बनपाल ॥३४
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