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दौलतराम-कृत क्रियाकोष काचो जल अर कोरो धान, दल फल फूल तजै बुधिवान । छाल मूल कन्दादि न चखे, कुंपल बीज अंकुर न भखै ॥४८ हरितकायको त्यागी होय, जीवदयाको पालक सोय । सको फल फोड्या बिन नाहि, लेवी जोगिन ग्रन्थनि मांहि ॥४९ लोन न ऊपरसे ले धोर, लोन ह सचित्त गिनै वर वीर । माटी हाथ धोयवे काज, लेय अचित्त दयाके काज ॥५० खार तथा माटी जो जलो, सोई लेय न काची डली । पृथ्वीकाय विराधे नाहिं, जीव असंख कहैं ता मांहि ॥५१ जलकायाकी पालै दया, सर्व जीवको भाई भया । अगनिकायसों नाहिं बिरोध, दयावन्त पाव निज बोध ॥५२ पवन करे न करावे सोय, षट कायाको पीहर होय । नाहिं वनस्पति करै विराघ, जिनशासनको धरै अगाध ॥५३ विकलत्रय अर नर तियंच, सबको मित्र रहित परपंच । जो सचित्तको त्यागी होय, दयावान कहिये नर सोय ॥५४ आप भखै नहिं सचित्त कदेय, भोजन सचित्त न औरहिं देय । जिह सचित्तको कीयो त्याग, जीती जीभ तज्यो रस-राग ॥५५ दयाधर्म धारयो तिह धीर, पाल्यौ जैन वचन गम्भीर । अब सुनि छट्ठी प्रतिमा सन्त, जा विधि भाषी वीर महन्त ॥५६ द्व मुहूर्त जब बाकी रहै, दिवस तहांते अनशन गहै। द्वं मुहर्त जब चढिहै भान, तो लग अनशनरूप बखान ॥५७ दिनमें शील धरै जो कोय, सो छट्ठी प्रतिमाधर होय । खान पान नहिं रैनि मझार, दिवस नारिको है परिहार ॥५८ पूछे प्रश्न यहाँ भवि लोग, निशिमोजन अर दिनको भोग । ज्ञानी जीव न कोई करै, छट्ठो कहा विशेष जु धरै ॥५९ ताको उत्तर धारौ एह, औरनिको व्रत न्यून गिनेह । मन वच तन कृत कारित त्याग, करै न अनुमोदन बड़भाग ॥६० तब त्यागी कहिते श्रुति माहि, या माहीं कछु संशय नाहिं । गमनागमन सकल आरम्भ, तजै रैनिमें नाहिं अचंभ ॥६१ महाधीर वर वीर विशाल, दिनको ब्रह्मचर्य प्रतिपाल । निरतीचार विचार विशेष, त्यागै पापारम्भ अशेष ॥६२ जेनी जिनदासनि को दास, जिनशासनको करे प्रकाश । जो निशिभोजन त्यागी होय, छ: मासा उपवासी सोय ॥६३ वर्ष एकमें इहै विचार, जावो जीव लगै विस्तार । है उपवासनिकों सुनि वीर, तातें निशिभोजन तजि धीर ॥६४ जो निशिकों त्यागै आरम्भ, दिनहूं जाके अलपारम्भ । अब सुनि सप्तम पडिमा धनी, नारिनकू नागिन सम गिनी ॥६५
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