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श्रावकाचार-संग्रह धारयो ब्रह्मचर्य व्रत शुद्ध, जिनमारगमें भयो प्रबुद्ध । निशि वासर नारीकों त्याग, तज्यौ सकल जाने अनुराग ॥६६ मन वच काय तजी सब नारि, कृत कारित अनुमोद विचारि । योनिरंध्र नारीको महा, दूरगति-द्वार इहै उर लहा ॥६७ इन्द्राणी चक्राणी देखि, निंद्य वस्तु सम गिनै विशेष । विषय-वासनामें नहिं राग, जाने भोग जु काले नाग ॥६८ विषय-मगनता अति हि मलीन, विषयी जगमें दीखे दोन । विषय समान न बैरी कोय, जीवनिकू भरमावै सोय ॥६९ शील समान न सार न कोय. भवसागर तारक है सोय । अब सुनि अष्टम पडिमा भेद, सर्वारम्भ तजै निरखेद ॥७० आप करै नहिं कछु आरम्भ, तजे लोभ छल त्यागै दंभ। करवावै न करै अनुमोद, साधुनिकों लखि धरै प्रमोद ||७१ मन वच काय शद्ध करि संत, जग धंधा धारै न महंत । जीव घाततें कांप्यो जोहि, सो अष्टम पडिमाधर होहि ॥७२ असि मसि कृषि वाणिज इत्यादि, तजै जगत कारज गति वादि। जाय पराये जीनै सोइ, गृह आरम्भ कछू नहिं होइ ।।७३ कहि करवावै नाहीं वीर, सहज मिले तो जीमें धीर । ले जाव कुल किरियावन्त, ताके भोजन ले बुधिवन्त ॥७४ जगत काज तजि आतम काज, करै सदा ध्याव जिनराज । दया नहीं आरम्भ मँझार, करि आरम्भ भ्रमै संसार ॥७५ तातें तजै गृहस्थारंभ, जीवदयाको रोप्यो थंभ । करि कुटुम्बको त्याग सुजान, हिंसारम्भ तजै मतिवान ।।७६ दया समान न जगमें कोइ, दया हेत त्यागै जग सोइ । अब नवमी प्रतिमा को रूप, धारी भवि तजि जगत विरूप ॥७७ नवमी पडिमा धारक धीर, तजै परिग्रहका वर वीर । अन्तरंगके त्यागै संग, रागादिकको नाहिं प्रसंग ||७८ बाहिरके परिग्रह घर आदि, त्यागै सर्व धातु रतनादि । वस्त्र मात्र राखै बुधिवन्त, कनकादिक भीटे न महंत ॥७९ वस्त्र हु बहु मोले नहिं गहै, अलप वस्त्र ले आनन्द लहै । परिग्रहकों जानै दुःखरूप, इह परिग्रह है पापस्वरूप ॥८० जहां परिग्रह लोभ तहां हि, या करि दया सत्य विनशाहि । हिंसारम्भ उपावै एह, या सम और न शत्रु गिनेह ॥८१ तजै परिग्रह सो हि सुजान, तृष्णा त्याग करै बुधिवान । जाको चाह गई सो सुखी, चाह करें ते दोखें दुखी ।।८२ बाहिज ग्रन्थ-रहित जग माहि, दारिद्री मानव शक नाहिं । ते नहिं परिग्रह-त्यागी कहैं, चाह करते अति दुख लहें ।।८३
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