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________________ २७२ श्रावकाचार-संग्रह तो वाकों चित एम जु भया, देहु परायो माल जु लया। भूलिर थोरो मांगे वहै, तो वाकों समझा कर कहै ।।४५ तुमरो दनों इतनों ठीक, अलप बतावन बात अलीक।। ले जावो तुमरो यह माल, लेखा में चूको मति लाल ।।४६ घटि देवे को जो परिणाम, सो न्यासापहार दुखधाम । अथवा धरी पराई बस्त, जाकी बुद्धि भई विध्वस्त ।।४७ और ठौरकी और जु ठौर, करै सोइ पापनि सिरमौर । पुनि साकारमन्त्र है भेद, तजौ सुबुद्धी सुनि जिन वेद ।।४८ दुष्ट जीव परको आकार, लखतो रहै दुष्टता कार । लखि करि जानै परको भेद, सो पावै भव-वन में खेद ॥४९ परमंत्रनि को करइ विकास, सो खल लहै नरक को वास। जो परद्रोह धरै चित-मार्हि इह भव दुख लहि नरकहिं जाहि ॥५० अतीचार ए पांचों त्यागि, सत्य धरम के मारग लागि । परदारा परद्रव्य समान, और न दोष कहें भगवान ॥५१ परद्रोहसो पाप न और, निद्यो श्रुत में ठौर जुठोर । जिन जान्यं निज आतमराम, तिनके परधन सों नहि काम ॥५२ सत्य कहें चोरी पर-नारि, त्यागी जाइ यहै उर धारि । झूठ बकें तें जैनी नाहि. परधन हरन न इह मत माहिं ॥५३ दोहा सत्य-प्रभावै धर्म-सुत, गये मोक्ष गुण कोष । लहे झूठ अर कपटतें, दुर्योधन दुख दोष ॥५४ जे सुरझे ते सत्य करि, और न मारग कोय । जे उरझे ते झंठ करि, यह निश्चय अवलोय ॥५५ सत्यरूप जिनदेव हैं, सत्यरूप जिनधर्म । सत्यरूप निर्ग्रन्थ गुरु, सत्य समान न पर्म ॥५६ सत्यारथ आतम-धरम, सत्यरूप निर्वाण । सत्यरूप तप संयमा, सत्य सदा परवाण ॥५७ महिमा सत्य सुब्रत्त की, कहि न सकें मुनिराय । सत्य वचन परभावतें, सेवें सुर नर पाय ॥५८ जैसो जस है सत्य को, तैसौ श्री जिनराय।। जाने केवल ज्ञान में, परमरूप सुखदाय ॥५९ और न पूरण लखि सके, कीरति सुर नर नाग। या व्रतकं धारें सदा, तेहि पुरुष बड़भाग ॥६० नमस्कार या ब्रतकों, जो व्रत शिव-सुख देय । अर याके धारीनिकों, जे जिनशरण गहेय ॥६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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