________________
३५६
श्रावकाचार-संग्रह
बेसरी छन्द लश्या सुकल भाव अति शुद्धा, मन वच-काय सबै जु निरुद्धा। यामें एक और है भेदा, सो तुम धारहु टारहु खेदा ॥९१ उपशमश्रेणी क्षपक जु श्रेणी, तिनमें क्षायक मुक्ति निसैनी। पहलो शुक्ल जु दोऊ धारै, दूजो क्षपकविना न निहारै ॥९२ उपशम बारे ग्यारम ठाणा, परम्परै उतरै गुणठाणा। जो कदाचि भवहूर्ते जाई, तौ अहमिन्द्रलोककों जाई ॥९३ नर है करि धारे फिर धर्मा, चढें क्षपकश्रेणी जु अमर्मा। क्षपक श्रेणिधर धीर मुनिन्द्रा, होवे केवलरूपजिनिन्द्रा ।।९४ बारम ठाणे दूजो सुकला, प्रकटै जा सम और न बिमला। द्वमें क्षपकणि अधिकाई, कही जाय नहिं क्षपक बढ़ाई ॥९५ अष्टम ठाणे प्रगटै श्रेणी, सप्तमलों श्रेणी नहिं लेणी। क्षपक श्रेणिधर सुकल निवासा, प्रकृति छतीस नवें गुण नासा ॥९६ दशमें सूक्षम लोभ खिपार्व, दशमाथी बारमकों जावें। ग्यारमकों पैंडौ नहिं लेवे, दूजो सुकलध्यान सुख बेवे ॥९७ साधकताकी हद्द बताई, बारमठाण महा सुखदाई । जहां षोड़शा प्रकृति खिपावं, शुद्ध एकतामें लव लावै ॥९८
सोरठा मार्यो मोह पिशाच, पहले पायेसे श्रीमुनी। तजौ जगतको नाच, पायो ध्यायो दूसरौ ॥९९ है एकत्ववितर्क, अवीचार दूजी महा। कोटि अनन्ता अर्क, जाको सो तेज न लहै ॥१६०० ज्ञानावरणीकर्म, दर्शनावरणी हू हते। रह्यो नाहिं कछु मर्म, अन्तराय अन्त जु भयौ ॥१ निरविकल्प रस मांहि, लीन भयो मुनिराज सो। जहाँ भेद कछु नाहि, निजगुण पर्ययभावतें ॥२ द्रव्य सूत्र परताप, भावसूत्र दरस्यो तहाँ । गयो सकल सन्ताप, पाप पुण्य दोऊ मिटै ॥३ एक भावमें भाव, लखै अनन्तानन्त हो । भागे सकल विभाव, प्रगटे ज्ञानादिक गुणा ॥४ अपनों रूप निहार, केवलके सन्मुख भयो । कर्म गये सब हारि, लरि न सके जासें न को ॥५ एकहि अर्थे लीन, एकहि शब्दै माहिं जो। एकहि योग प्रवीन, एकहिं व्यंजन धारियौ ॥६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org