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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
एकत्व नाम अभेद, नाम वितर्क सिद्धंतकों । निरविचार निरवेद, दूजी पायो इह कह्यी ॥७ जहाँ विचार न कोय, भागे विकलप जाल सहु । क्षीणकषायी होइ, ध्यानारूढ़ भयो मुनी ॥८
जो पायो येह, गायो गुरु आज्ञा थकी । करं कर्मको छेह, अब सुनि तीजौ शुकल तू ॥९ सूक्षमकिरिया नाम, प्रगटै तेरम ठाण जो । जो निज केवल धाम, श्रुतज्ञानीके है परे ॥१० लोकालोक समस्त, भासै केवल बोधमें । केवल सो न प्रशस्त, सर्वलोकमें और कोउ ।।११ जे अघातिया नाम, गोत्र वेदनी आयु हैं । तिनकों नाश राम, परम शुकल केवल थकी ॥१२ पिच्यासी प्रकृतो जु, जिनके ठाणें तेरमें । जरो जेवरी सी जु, तिनकूं नाशै सो प्रभू ॥१३ सूक्षमक्रिया प्रवृत्ति, ध्यावै तीजी शुकल सो । वादरजोग निवृत्ति, कायजोग सक्षम रहै ॥१४ करै जु सूक्षम जोग, तेरम गुणके छेहु रै । पावे तबै अजोग, चौदम गुणठाणें प्रभू ॥१५ तहां सु चौथो ध्यान, है जु समुच्छिन्नक्रिया । ताकर श्रीभगवान, बेहतरि तेरा हतै ॥१६ गई प्रकृति समस्त, सौ ऊपरि अड़ताल जे । भये भाव जड़ अस्त, चेतन गुण प्रगटे सबै ॥ १७ करनी सकल उठाय, कृत्यकृत्य हूवी प्रभू । सो चौथो शिवदाय, परम शुकल जानों भया ॥ १८ पंच लघुक्षर काल, चौदम ठाणें थिति करे । रहित जगत जंजाल, जगत - शिखर राजे सदा ।।१९ बहुरि न आवै सोय, लोकशिखामणि जगततें । त्रिभुबनको प्रभु होय, निराकार निर्मल महा ॥२० सबकी करनी सोइ, जाने अंतरगत प्रभू । सर्व व्यापको होइ, साखीभूत अव्यापको ||२१ ध्यान समान न कोइ, ध्यान ज्ञानको मित्र है । सो निज ध्यानी होइ, ताकों मेरी वंदना ॥२२ धर्ममूल ए दोय, ध्यान प्रशंसा योग्य हैं । आरति रूद्र न होय, सा उपाय करि जीव तू ॥२३ धर्म अगनिक दीप, शुकल रतनको दौप है । निज गुण आप समीप, तिनकों ध्यावौ लोक तजि ॥२४
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