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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष
मातुल तास महीदत्त सीस नवाय दियो अब हो। पूरव पाप किये में कोन सुभाषिये नाथ वहै सब ही ॥५७
दोहा कौन पापते दुख लह्यो, सो कहिये मुनि नाह । सुख पाऊं कैसे अब, उहै बतावो राह ।।५८
सवैया तेईसा सो मनिराज कह्यो भो वत्स सुपूर बे पाप कहां तज याही, प्रोहित नाम यो रुद्रदत्त महीपति के हथनापुर माहीं। सो निशि-भोजन लंपट जोर विपीलक कीट भखै अधिकाहीं, सो जन रात-समय इक मींढक बैंगण साथ दियो मुख माहीं ।।५९
अडिल्ल तास पाप के उदय मरिवि घूघू भयो, नरक जाय पुनि काग होय नरकहिं गयो।
द्वै विलाप लहि नरक जाय संवर भयो, नरक जाय कै ग्रद्धपक्षि नरकहिं लह्यो ।।६० निकलि सूकरो होय नरक पद पाइयो, है अजगर लहि नरक वषेरो थाइयो। श्वभ्र जाय फिर गोधा तिरयग गति पाई, नरक जाय हो मच्छ नरक पृथिवी लई ॥६१ नरक महोतें निकल महीदत्त थाइयो, उल्कादि दस तिरयग भव दुख पाइयो । नरक वार दस जाय महा दुख तें सह्यो, निसि भोजन के भई श्वभ्र दुख अति लह्यो ॥६२
दोहा
महीदत्त फिर पूछवे, निसि भोजनतें देव । नाभवमें दुख किम लहे. सो कहिये मुझ भेव ॥६३ मुनि भाषै द्विज-पुत्र सुण, निसि में भोजन खात । जीव उदरि जैहै तब, बहुविधि है उत्पात ।।६४
सवैया इकतीसा माखीतें वमन होय, चींटी बुद्धि नाश करे, जूकातें जलोदर होय, कोड़ी लूत करि है, काठ फांस कंटकतें गलमेव धावै विथा, बाल सुर-भंग करै कंठ हीन परि है। म्रमरीतें सूना होय, कसारीतें कम्पवाय, विन्तर अनेक भांति छल उर धरि हैं, इन आदिक कथन कहाँ लौं कीजे वत्स, सुन नरक तियं च थाम कहे जो ऊपर हैं ॥६५
दोहा जो कदाचि मर मनुष . विकल अंग बिनु रूप। अलप आयु दुभंग अकुल, विविध रोग दुख कूप ॥६६ इत्यादिक निशि-अशन तें, लहि है दोष अपार । सुनवि महोदत्त मुनि प्रतें, कहै देहु व्रत सार ॥६७ मुनि भार्षे मिथ्यात्व तजि, भजि सम्यक्त्व रसाल । पूरव श्रावक व्रत कहे, द्वादश धरि गुणमाल ॥६८ दर्शन व्रत विधि भाषिये, करुणा करि मुनिराज । मुझ अनन्त भव-उदधितें, तारणहार जहाज ॥६९
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