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किशनसिंह-कृत क्रियाकोष तातें जेनी जो होइ, ए जैन विनायक सोई। साजी अवटावे जेह, पापड़ करण को तेह ॥३१ जल तीन चार दिन ताई, राखै नहों संक धराहीं ।
बसु पहर गये तिन माहीं, सनमूर्छन जे उपजाहीं ॥३२ घर घर पहुंचावे, बहुतो सो पाप बढ़ाने । वसुजाम मांहि वह नीर, बरते जे बुद्ध गहीर ॥३३
उपरांति दोष अति होई, मरयाद तजो मति कोई। अरु वड़ी करण के ताई, भिजवाने दालि अथाहीं ॥३४ सो दालि धोय सब नाखे, बहुविरियां लगन न राखे । घटिका दुय मैं उस माहीं, सन्मूर्छन जीव उपजाहीं ॥३५ यातें भविजन मन लावे, तस तुरतहि ताहि सुकावे । धोवण को पानी जेह, नाखे बहु जतन करेय ॥३६ बसु सरद रहै नहीं जाते, बीखरिवानांसे यातें । सांझै जो दालि पिसावै, बासन भरि राति रखावै ॥३७ उपसावे अधिक खटावै, उपजे त्रस वारन पावे। फुनि लूण मसाला डारै, करते मसलें बहुबारे ॥३८ इम जीवनि मास करती, मनमाही हरष धरती । निज परतिय बहुत बुलावे, तिनपै ते बड़ी दिबावे ॥३९ सो पाप अनेक उपावे, कहते कछु ओर न पावै । करणा जाके मनि आवे, सो इह विधि बड़ो निपावे ॥४० उनहे जलवालि भिजोवे, प्रासुक जल तें फिर धोवे । किरिया को दोष न लावे, सों दिन में कलौ करावे ॥४१ ननकाल बड़ी ससु देह, उपजावे पुण्य न छेह । स्याणों जम अवर अयाणो, दुहुं व्याह करे इह जाणो ॥४२ किरिया में भेद अपार, इक सुख दे इक दुखकार । आके करुणा मनमाही, अविवेक न क्रिया कराहीं ॥४३ छाणा की गाडी आने, अविवेक की पूजा ठाने । लकडी को बम बनाव, ताको तिय पूजण आवे ॥४४ गावती गीत धनेरा, जो जो जिह थानक केरा । माटी पूजे करि टीकी, कारण लखि सबही को ॥४५ संकडी राखी दिन ऐ है, तिथंचाकि पूजणो जै हैं। तिसि को डोरे बंधवावै, परियण सज्जन मिलि आवै ॥४६ तह पूज बिनायक करिके, रोली पूजे चित धरिके। अरु बार बार बिनायक, पूजे जानो सुखदायक ॥४७ इन आदि क्रिमा विपरीति, करिहै मूरख धरि प्रीति । मिभ्यात मेव नहिं जाने, अघ को उर मन नहिं आने ।।४८
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