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बावकाचार
अघ त ह नरक बसेरा, वोर न आवे दुख केरा । यातें सुनि बुध जन एह, मिथ्यात क्रिया तजि देह ॥४९ तातें भव भव सुख पावे, आगम जिन राज बतावै । यातें सुख बांछक जीव, आज्ञा जिन पालि सदीव ।।५० करि है जे क्रिया विवाह, सिव मत माफिक यह राह । मिथ्यात दोष इह जाते, जैनी को वरजी यातें ॥५१ पूरब दिस ज्योतिस जैन, कछुयक उद्योत सुख दैन । रहियो दिन माफिक व्याह, जैनी धरि करे उछाह ।।५२ तामें मिथ्या नहिं दोष, सिवमत विधि हूँ नहीं पोष । जैनी श्रावक जो पंडित, जिनमत आचार जु मंडित ॥५३ ते व्याह करा आई, मन में शंका न धराई। तिन हूँ स्यों आप समाही, सुत बेटी सगपन थाहीं ।।५४ प्रथमहि जो व्याह संचैहै, जिन मंदिर पूज रच है। बाजित्र अनेक बजावें, युवती जन मंगल गावें ॥५५ कन्या वर को ले जाँही, जिन चरणनि नमन कराहीं । जिन पूजि रुआवे गेहै, पीछे विधि एम करे है ॥५६ सज्जन परिवार संतोष, ऊषित भूषित जन पोषे । जिन मत विधि पाठ प्रमाणे, अपराजित मंत्र वषाण ॥५७ वर कन्या दोहुँ कर जोड़, फेर कराय धरी कोड़। समधीजन असन करावे, दुहुँ तरफहि हरष बढ़ावे ॥५८ देवो निज सकति प्रमाण, कन्या वर भूषण दान । इह विधि जे व्याह करांही, मिथ्यात न दोष लगाहीं ॥५९ गुरु देव धरम परतीत, धारो जन की इह रीति । तिनको जस है जगमाहीं, दूषण मिथ्यात तजाहीं ॥६०
दोहा श्रो हणवन्त कुमार की, मूढनि धरि चित प्रीति । गांम गांम की थापना, महाघोर विपरीत ॥६१
चाल छन्द मूरति पाषण घडावे, तसु ऐसे अङ्ग बनावे । मानुष कैसे कर पाय, बन्दर को सो मुख थाय ॥६२ लंबी पूंछ जु अधिकाई, मूरति इस भांति रचाई । कहु इक क्षत्री जु चुणावे, कहुं मछि रचिकै पधरावै ॥६३ कहुँ चौड़े निकटाहि गाम, कहुँ कांकड़ दूरहि धाम । तिनतेल लगावे पूर, चरचे का बीरू सिन्दूर ॥६४।। कहिहै तसुखेड़ा देव, बहु जन सिंह पूजे एव । पापी जन भेद न जाने, जिह आगे अदया ठानें ॥६५
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