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१८.
किशनसिंह-कृत कियाकोष प्रतिमा की निन्दा करिहै. ते नरक निगोदे परि है। प्रावर्तन पंच प्रकार, पूरण करिहै नहिं पार ॥७ श्रावक मत जैन दिगम्बर, कुलधर्म कहो जिम जिनवर । मन वच क्रम ताहि गहै है, सुर अनुक्रम शिव पैहै ।।८ पूजा जिन प्रतिमा कोजे, पात्रनि चहुँ दान जु दीजै । तप शोल भाव-जुत पारे, अरु कुगुरु कुदेवहिं टारै ॥९ बिनु जैन अवर मतवारे, वातुल सम गनिए सारे । गहलो नर जिस तिम भाखै, कुमती जिम झूठी आखै ॥१० श्रावक कुल जिहि अवतार, जिन धर्महि तजहि गंवार । ढूंढया मतको जौलैहैं, ते नरक निगोद परे हैं ॥११ सांचो झूठो न पिछाणे, अविवेक हिये में आणे ! प्रतिमा-निंदक जे जीव, तिनको उपदेश गहीव ॥१२ ताके पोते संसार, बाकी कुछ वार न पार । चहुं गति दुख विविध भरन्तो, रुलिहै बहु जोनि धरन्तो ॥१३ यातें जे भविजन धीर, ढूढामत पाप गहीर । छांडो लखि अति दुखदाई, निहचै जिनराज दुहाई ॥१४ जिनमत हिरदय अवधारो, जप तप संयम व्रत पारो। तातें सुख लही अपार, थामें कछु फेर न सार ॥१५ इति श्री प्रतिमाजी की वर्णन तथा ढंढ्या को मत निषेधन संपूर्ण ।
चौपाई
अब कछु क्रिया-हीन अति जोर, प्रगटयो महा मिथ्यात अघोर । श्रावक लां कबहूँ नहिं करै, आन मती हरषित विस्तरै ॥१६ जैन धरम प्रतिपालक जीव, कर क्रिया जे हीन सदीव । तिनके सम्बोधन को जान, कहौं क्रियातें हीन बखान ॥१७ तिनको तजै विवेकी जीव, कर तन भव भ्रमै अतीव । अब सुनियो बुधिवन्त विचार, क्रियाहीन वरणन विस्तार ॥१८
__ अथ मिथ्यामत निषेध । चौपाई भादव गए लगै आसोज, पडिवा दिवसतणी सुनि मौज । लड़की बहुमिलि गोबर आनि, सांझी मांडे अति हित ठानि ॥१९ पहर आठ लौं राखै जाहि, फिर दूजे दिन मांडै ताहि । मांडै दिन नव नव रीति, तेरसका दिन लो धरि प्रीति ॥२० चौदस अमावस दस दिन जाहिं, सांझी बड़ी जु नाम धराहिं। मिले पांच दस प्रौढ़ा नारी, मांडै ताहि विचारि विचारी ॥२१ हाथ पांव मुख करि आकार, गोवर का गहना तनवार । उपर चिरमी जल पोस लगाय, कोड़ी फूल लगावै जाय ॥२२
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