SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८४ बावकाचार-संग्रह इम विपरीत करै अधिकाय, तास पापको कहें बनाय। खोड्यो बांभण सांझी लेन, आयो भावै बनिता बैन ।।२३ राति जगाव गावै गीत, ऐसी महा रचे विपरीत । करि गुलधाणी दे लाहणा, आवै सो राखै पर तणा ॥२४ सुदि पड़िवा कों ताहि उतारि, नदी ताल माहे दे डारि । ऐसी प्रभुता देखौ जास, देव मान पूजत है तास ॥२५ अरु सांझी किसकी है धिया, को षोड्यो द्विज कुण को तिया। गोबर की मांडै किम तिया, वरसा वरसी कहुं समषिया ॥२६ परगट लखि निज रां इह रोति, मांने ताहि धरै बहु प्रीति । पापी भेद लहे तसु नाहि, गोवर सरद रहै जा मांहि ॥२७ घटिका दोय बीत है जबै, तामें त्रस उपजत हैं तबै । तिनके पाप तणों नहिं पार, भव भव में दुख को दातार ॥२८ महा मिथ्यात तणो जे गेह, नरक तणो दायक है जेह । छेदन भेदन तापन जहाँ, ताडन सूलारोहण तहां ॥२९ दुख भुगते तहं पंच प्रकार, इस मिथ्यात थकी निरधार । जिन मत के धारी हैं जेह, सो मेरी विनती सुनि एह ॥३० नहीं मांडि मत पूजि लगार, इह संसार बढ़ावन हार । . आन मती पूजन मन लाय, तिनसौं कछु कहनो न बसाय ॥३१ सोरठा दिन पनरे के मांहि, मरण दिवस पित-मात को। श्रावक जे हरषांहि, ते जिन मारगर्ते विमुख ॥३२ छंद चाल पित मात तृपति के हेत, भोजन बहुजन कों देत । कैसे तृपति आँ, तेह जिन आगम भाष्यो एह ।।३३ मुए हुए वरष घनेरे, सुख दुख भुगतै भव केरे। तहां ते वहुरि केम वह आवै, जिन मत में इह न समावै ॥३४ सुत असन करै पितु देखे, तृपति न कै परतछ पेखे । तो आन जनम कहा बात, जानो ए भाव मिथ्यात ॥३५ दूय कोस थको निज बाग, सींचे चित धरि अनुराग । रूख न बढ़वारी पावै, परभव किम तृपति लहावै ॥३६ तार्ते जिनमत में सार, ऐसो कह्यो न आचार । इह घोर मिथ्यात सुजाणी, तजिए भवि उत्तम प्राणी ॥३७ माठे आसोज उजारी, अरु पूजे चेत दिहारी । करि के घूघरी कसार, बांट तसु घर घर बार ॥३८ गुड घिरत सुपारी रोक, नालेर धरै दे ढोक । निज बहिन भुवा कौं देहै, धरि लोभ हिए वे लेहै ॥३९ लेने देने को पाप, मिथ्यात बढे सन्ताप । तातें जैनी है जेह, पूजो न चढ़यो कछु लेह ॥४० सतियन की राति जगाव, पित्रनहूँ को जु मनावे । बीजासण सोकि आराधे, जागरण करै हित साधे ॥४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy