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किशनसिंह-कत कियाकोष संजोड़ा अवर कंवारा. गोरणीय जिमावं सारा । तिनके करि तिलक लिलाट, पायनिदे ढोक निराट ॥४२ पैसादिक तिनकों देई, वे हरषि हरषि चित लेई। इह किरिया अति विपरीति, छांडो बुध जांणि अनीति ॥४३
| জড়িত। बीजासण को कर बिझालरो डरि धरे, सो किउ घडत घडाल पातरी हिय परे । मूढ मान तिन पूजे घर लछमी जबे, उदै असाता भये वेचि खाहे तबै ॥४४
दोहा सकलाई तिन में इसी, अविवेकीन लखांहि । मुरभख में बहु मानता, उर बख सो बिक जांहि ॥४५ खेत पालकी थापना, एम बनावे कूर । जिसा तिसा पाषाण परि, डारे तेल सिंदूर ॥४६
छन्द चाल
बैशाख में घर के बारे, पूजे दे जात विचारे। तेल वटरुवां कला तेल, ऐसे पूजा विधि मेल ॥४७ दस बीस त्रिया धरि प्रीति, गावें जु गीत विपरीति । सेवें तिह मानें हेव, सो जान मिथ्याती एव ॥४८ बहुते खेडा पुर गाम, इकसे न कही तसु नाम । तातें सकलाई माने, सुखदाता एम बखाने ।।४९ दीया सुत जो उपजांही, सुत बिन तिय कोंनि रहांही। इह झूठ थापणो जांणी, तजिये भवि उत्तम प्राणी ॥५० पाहण लघु धरें इक ठाहीं, पथवारी नाम कहांही। तिनको पूजत धरि नेह, कबहु न सुखदाता तेह ॥५१ मिथ्यात तणो अधिकार, नरकादिक दुख दातार । जिन-भाषित परचित दीज, खोटी लखि तुरत तजीजे ॥५२ आसोज है आठे स्वेत, घोटक पूजे धरि हेत । जिन राज एम बखानी, तिरयंच है पूजे प्रानी ॥५३ सो पाप अधिक उपजावे, कहते कछु और न आवे । तातें जैनी जो होय, पसु पूजि न नरभव खोय ॥५४ दुसरा हाकादिन माहीं, लाडू पीहर ले जाहीं। इह रीति तजो भवि जीव, जिन-वच धरि हृदय सदीव ॥५५ जिन चैत्यन वन के माहीं, पून्यो दिन सरद कराहीं। आगम में कहुँ न बखानी, विपरीत तजो तिह जानी ॥५६ मंगल तेरसि दिन न्हावे, वसतर तन उजले ल्यावै। आवे जब दिवस दिवाली, दीवा भरे तेल हवाली ॥५५
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