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श्रावकाचार
निज मन्दिर ऊपर परि है, अति ही शोभा सो करि है। तिन में बहु बस को घात, अघ घोर महा उतपात ॥५८ दीवा थाली में धरिके, मिल है तसु घर घर फिर के। तिन में कछु नाहिं बड़ाई, प्राणी मरिहें अधिकाई ॥५९ पापी कछु मेद न जानें, मन में उच्छव अति टार्ने । सो पापी महा दुख पावे, भव भामरि अन्त न आवे ॥६. भरि तेल काकडा वाले, बालक हीडहि कर वाले। घर-घर लीये सो डोले, बालक हीडहि बच बोले ॥६१ वो देय पईसा रोक, ढिंग करे एकसा थोक। मरयाद भटे ता माहीं, ताकी तो कहा चलाहीं ॥६२ बह हीडमाहिं त्रस जीव, जलि हैं नहिं संख्या कीव । इह पाप न मन में आवे, सुत लखि दम्पति सुख पावे ॥६३ ते पापी जानो जोर, पडिहै जो नरक अघोर। भविजन जो निज हितदाई, किरिया इह हीण तजाई ॥६४ काती सुदि एक जानी, गोधन को गोबर आनी । सांथ्यो निज बार करावे, गोर्धन तसु नाम धरावे ॥६५ जब सांझ बैल घर आवे, पूजै तिन अति हरषावे । सांथ्यो निज पाय खुदावे, मिथ्यात महा उपजावे ॥६६ इन हीन क्रिया को धारी, जैहै सो नरक मंझारी। पकवान दिवाली केरो; करिहे धरि हरष घनेरो॥६७ दुय चार पुत्र जे थाई, तिनको दे जुदी बनाई। हांडीय भरे पकवान, पितु मात हरष चित आन ॥६८ पुत्रन सिर तिलक करावें, तिनपै तो हाट पुजानें । सिर नाय तब दे धोक, किरिया इह अघ की कोक ॥६९ व्यापारी बहीं बणावें, पूठा चमड़ा का ल्यावै। तिनको पूजत है जेह, लखि लोभ नहीं तसु एह ॥७० तिथि चौथि महाबदि मानी, व्रत पाप उदय को ठानी। दिन में नहिं लेय अहार, निशि शशि ऊगे तिहि बार ॥७१ ले मेवो दूध मिठाई, देखों विपरीत बढ़ाई। जे चौथ मास सुदि होई, करिहै जे विवेकहिं खोई. ॥७२ इम पाप थकी अधिकाई, दुरगति में बहु भटकाई । पंदरह तिथि में इह जानो, तसु कहि संकट की रानो ॥७३ पद देव मान करि पूजे, सो अति मूरखता हूज । जैनी जन को नहिं काम, मिथ्यात महा दुख धाम ।।७४
वे, तब दान देय हरषागे। तिल पाणी मांहि भराई, द्विज जनकों देय लुटाई ॥७५
संकरांति
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