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किशनसिंह - कृत क्रियाकोष
मूला का पिंड मँगावे, ब्राह्मण के घरहि खिनावे । खीचड़ी बाँट हरसाव, गिन है हम पुन्य बढ़ावे ॥७६ जहँ सथावर ह्वै नाश, तह किम ह्वै शुभ परकाश । अति घोर महा मिथ्यात, जैनी न करे ए बात ॥७७ फागुण वदि चौदस दिन को, बारह मासुन में है तिनको । शिवरात तनो उपवास, कीए मिथ्या परकास ||७८ होलो जाले जिहि बारे, पूजे सब भाग निवारे । जाको देखन नहि जइये, कर जाप मौन ले रहिये ॥७९ पीछे बहुछार उड़ावे, जल तें खेले मन भावे । छाया अणछाया की नहीं ठीक, लंपट न गिने तहकोक ||८० करि चरम पोटली डोल, राखै मन करत किलोल । यदवा तदवा मुख भाखे, लघु वृद्ध न शंका राखे ॥८१ जल ना आपस मांही, नर तिय नहीं लाज गहांही । न्हावण के दिन सब न्हावे, कपड़ा उजरे तन भावे ॥८२ सबंधी गेह जुहार, करिहै फिरिहे हित धार । विपरीत लवण लखि एह, तामैं कछु नहिं संदेह ॥ ८३ मिथ्यात तणी परि पाटी, क्रिया लागे जिन वाटी । सो भव-भव की दुखदाई, मानो जिनराज दुहाई ॥८४
दोहा
चैत्र - सित आठे दिवस, जाय सीतला थान । गीत विविध बादित्र जुत, पूजे मूढ अयान ॥८५ भाष्यो रोग मसूरिया, जिन श्रुत वैद्यक माँहि । करनि कांकरा एकठा, धरी थापना आहि ॥८६ सोरठा लखो बड़ाई एह, वाहन गदहो तासको । लहै हीन पद जेह, जो लघु नर हि चढ़ाइये ॥ ८७
दोहा बालक याही रोग ते, मरै आव जिह छीन । की दीघ आयु है, सो सारे नकि सीन ॥८८ सोरठा
प्रगट भई कलिकाल, इह मिथ्यात कि थापना । जे जैनी सुविशाल, याहि न माँने सर्वथा ॥८९ मेले जे नर जहि, नहीं गीत सुनिके खुसी । टका गांठि का खांहि, पाप उपावे अधिक वे ||९०
गीताछन्द जे चैत वदि पड़वा थकी गण-गोरि की पूजा सजे । परभाति लड़की होय भेली गीत गावे मन रुचे ॥
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