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श्रावकाचार-संग्रह सो उपचार कह्यो विनय, ताके बहुत विभेद । जिनवर जिन प्रतिमा बहुरि, जिनमन्दिर हर खेद ।।४९ जिनवानी जिन तीरथा. मुनि आर्यावत धार । श्रावक और सु श्राविका समदृष्टी अविकार ॥५० इनको विनय जु धारिवी, गुण अनुरागी होइ । सो तप विनय कहावई, धारै उत्तम सोइ ।।५१ जैसे सेवक लोग अति, सेवें नरपति-द्वार । तैसे चउविधि संघकों, सेवै सौ तप घार ॥५२ आप थकी जो उत्तमा, तिनको दासा होइ । सबसों समता भावई, विनयरूप तप सोइ ॥५३ व्रत बिन छोटे आपते, जे सम्यक्त निवास । जिनधर्मी जिनदास हैं, तिनहूँ सों हित पास ॥५४ धर्मराग जाके भयो, सो इह विनय धरेय । पंच प्रकार विनय करि, भव-सागर उतरेय ।।५५ अब सुनि वैयावृत्त जो नवमो तप सुखदाय । जो उपचार करै सुधी, पर दुखहर अधिकाय ॥५६ हरै सकल उपसर्ग जो, ज्ञानिनिके तप धार । सुघी वृद्ध रोगीनिकों, करै सदा उपगार ।।५७ महिमादिक चाहे नहीं, निरापेक्ष व्रतधार । वैयावृत्त करै भया, जिनवाणी अनुसार ॥५८ मुनिकों उचित मुनी करें, टहल मुनिनिकी धीर । मुनि सेवासम नाहिं कोउ, त्रिभुवनमें गंभीर ॥५९ श्रावक भोजन पथ्य दे, औषधि आश्रय आदि । करै भक्ति साधूनिकी, इह विधि है जु अनादि ॥६० जो ध्यावै निजरूपको, सर्व विकलपा टारि। सम दम भाव हि दृढ़ धरै, वैयावृत्त सो धारि ॥६१ सम कहिये समदृष्टिता, सकल जीवकों तुल्य । देखें ज्ञान विचारतें, इह दृष्टी जु अतुल्य ॥६२ दम कहिये मन इन्द्रियां, दमै महा तप धारि । चित्त लगावै आपसों, सहै लोककी गारि ॥६३ तजे लोक व्यवहारकों, धरै अलौकिक वृत्ति । सो चउगतिकों दे जला, पावें महानिवृत्ति ॥६४ सुनों सुबुद्धी कान धरि, दसमो तप स्वाध्याय । सर्व तपनिमें है सिरे, भार्षे त्रिभुवनराय ॥६५ नहिं चाहै जु महंतता, करवावे नहिं सेव । चाह नहीं परभावकी, सेवै श्रीजिनदेव ॥६६
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