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दौलतराम - कृत क्रियाकोष
दुष्ट विकलपनिकों भया, जो नासन- समरत्थ । सो पाव स्वाध्यायकों, फल केवल परमत्य ॥६७तत्त्व सुनिश्चय कारनें, करें शुद्ध स्वाध्याय । सिद्धि करें निज ऋद्धिकों, सो आतम लवलाय ॥६८ आगम अध्यातममई, जिनवरको सिद्धान्त । ताहि भक्ति कर जो पढ़ें सो स्वाध्याय सुकान्त ॥ ६९ केवल आतम अर्थ जो, करे सूत्र अभ्यास । अपनी पूजा नहिं चहै, पार्व तत्त्व अध्यास ॥७० अपने कर्म कलंकके, काटनकों श्रुतपाठ । करें निरन्तर धर्मधी, नासै कर्म जु आठ ॥७१ भेद पंच स्वाध्यायके, उपाध्याय भाषेहिं । जे धारें ते शांतघी, आतम रस चाखहि ॥७२ कही वाचना पृच्छना, अनुप्रेक्षा गुरु देव । आमनाय पुनि धर्मको, उपदेशौ बहुमेव ॥७३ ग्रन्थ बांचवी वाचना, पूछना पूछनरीति । बारंबार विचारिवौ, अनुप्रेक्षी परतीति ॥७४ आमनायको जानिवौ, जिनमारगकी वीर । धर्म - कथन करिव सदा, कहें धर्मघर धीर ७५ निसही भवभावतें, जो स्वाध्याय करेय । पाव निजज्ञानकों, भवसागर उतरेय ॥७६ जो सेवें जिनसूत्रकों, जग अभिलाष धरेय । गर्व घरे विद्यातनों, सो चउगति भरमेय ॥७७ हम पंडित बहुश्रुत महा, जानें सकल जु अर्थ | हम न सेवै मूढधी, देखो. बड़ो अनर्थ ॥७८ इहे वासना जो धरै, सो नहिं पंडित कोइ । आतम भावे जो रमैं, सो बुध पंडित होइ ॥७९ मान बढ़ाइ कारनें, जे श्रुति सेवें अंध । ते नहि पाव तत्त्वों, करै कर्मको बन्ध ॥८० जेनसूत्र मद मान हर, ताकरि गर्वित होय । ताहि उपाय न दूसरी, भ्रमें जगतमें सोय ॥८१ अमृत विषरूपो भयो, जाकी और इलाज । कहो, कहा जु बताइये, भाषे पंडितराज ॥८२ जो प्रतिकूल विमूढधी, साघमिनितें होइ । पढ़िवो गुनिवो तासके, हालाहल सम जोइ ॥ ८३ रागद्वेष करि परिणम्यू, करे असूत्र अभ्यास । सो पावे नहि धर्मकों, करे न कर्म विनास ॥८४
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