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दौलतराम-कृत क्रियाकोष श्रीगुरु पास प्रकाशई, सरल चित्तकरि धीर । स्वामी लाग्यो दोष मुझ, दण्ड देहु जगवीर ॥३१ तब जो श्रीगुरु दण्ड दे, व्रत तप दान सुयोग । सो सब श्रद्धा तें करै, पावै पंथ निरोग ॥३२ ऐसी मनमें ना धरै, अलप हुतो यह दोष ।। दियो दण्ड गुरुने महा, जाकरि तनको शोष ॥३३ सबै त्यागि शंका सुधी, सकल विकलपा डारि । प्रायश्चित्त करै तपा, गुरु आज्ञा अनुसारि ॥३४ बहरि इच्छै दोषकों, त्यागै मन वच काय । देहतने सौ ट्रॅक , तोहु न दोष उपाय ॥३५ या विधिके निश्चय सहित, वरतै ज्ञानी जीव । ताके तप कै सातमों, भाषे त्रिभुवन-पीव ॥३६ जो चितवै निजरूपकों, ज्ञानस्वरूप अनूप । चेतनता मंडित विमल, सकल लोकको भ प ॥३७ बार बार ही निज लखै, जानें बारम्बार । बार बार अनुभव करे, सो ज्ञानी अविकार ॥३८ विकथा विषय कषायतें, न्यारों वरतै सन्त । ता विरकतके दोष कहु, कैसे उपजे मित ॥३९ निरदोषी बहुगुण धरै, गुणी महाचिद्प । तासों परचै पाइयो, सो तप धारि अनूप ॥४० दोषतनों परिहार जो, कहिये प्रायश्चित्त। धारै सो निजपुर लहै, गहै सासतो वित्त ॥४१ अव सुनि भाई आठमो, विनय नाम तप धार । विनय मूल जिनधर्म है, विनय सु पंच प्रकार ॥४२ दरसन ज्ञान चरित्र तप, ए चउ उत्तम होइ । अर इन चउके धारका, उत्तम कहिये सोइ ।।४३ इन पांचनिको अति विनय, सो तप विनय प्रधान । ताके भेद सुनूं भया, जाकरि पद निरवान ॥४४ दरसन कहिये तत्त्वकी, श्रद्धा अति दृढरूप । ज्ञान जानिवौ तत्त्वको, संशय रहित अनूप ॥४५ चारित थिरता तत्त्वमें, अति गलतानी होइ । तप इच्छाकों रोकिवौ, तन मन दण्डन सोइ ॥४६ ए है चउ आराधना, इन बिन सिद्ध न कोय । इनको अति आराधिवौ, विनयरूप तप सोय ।।४७ रतनत्रय-धारक जना, तप द्वादश विधि धार । तिनकी अति सेवा करै, तन मन करि अविकार ||४८
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