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किशनसिंह - कृत क्रियाकोष
तामें उपजें जीव अपार, जिनवाणी भाष्यो निरधार । जैसें पशू चाम के मांहि, घृत जल तेल डार हैं तांहि ॥४९ ताही कुल के जीव उपजन्त, संख्यातीत कहें भगवन्त । ऐसो दोष जाणिके संत, चरम वस्तु तुम तजहु तुरन्त ॥५० कोई मिथ्याती कहै एम, जिय उतपत्ती भाषो केम । जीव तेल घृत में कहुँ नांहि, चरम घरें कर उपजें कांहि ॥५१ ताके समझावण को कथा, कही जिनेश्वर भाषं यथा । दे दृष्टान्त सुदृढ़ता धरी, मिथ्यादृष्टी संशय हरी ॥५२ घृत जल तेल जोगतें जोव, चरम वस्तु में धरत अतीव । उपजै जैसें जाको चाम, सो दृष्टान्त कहूँ अभिराम ॥५३ सूरज सन्मुख दरपण घरे, रूई ताके आगे करै ।
रवि दरपण को तेज मिलाय, अर्गानि उपजे रूई बलि जाय ॥५४ नहीं अर्गानि इकली रूमांहि, दरपन मध्य कहुँ है नांहि । दुनि की संयोग मिलाय, उपजे अर्गानि न संशै थाय ॥ ५५ तेई चाम के वासन मांहि, घृत जल तेल घरें सक नांहि । उपजें जीव मिलें दुहुँ थकी, इह कथनी जिनमारग बकी ॥५६ ऐसे लख के भील चमार, धीबर रैगर आदि चंडार । तिनके घर के भाजन तणो, भोजन भखे दोष तिम तणो ॥ ५७ तेसो चरम वस्तु में दोष, दुरगति दायक दुख को कोष । चरम वस्तु भक्षण करि जेह, मांस भखी सादृश है तेह ॥५८ तुरत पशू मूए की चाम, करिके तास भाथडी ताम | भरे हींग तामें मिल जाय, खातो मांस दोष अधिकाय ॥५९ जाके मांस त्याग व्रत होय, हींग भव्य नहि खावें कोय । हींग परै जहि भाजन मांहि, सो चमार बासण सम जाहि ॥ ६० सवैया चामड़े के मध्य वस्तु ताको जो आहार होय, अति ही अशुद्ध ताहि मिथ्यादृष्टी खाय है । दातार के दीए बिन जिन इच्छा होय एसो, असन लहाय नाम जती को कहाय है ॥ तिन बहिरात मांसो कहा कहे और सुनो, वणियो सो भोजन क्रियातें होण थाय है । हरित अनेक जुत मारग धरमवन्त, शुद्धता कहाय भखें धरें या गहाय है ॥६१
बोहा
जीत भोजन के विषे, मूवो जनाबर देख । तजै नहीं बह असन को, पुरजन दुष्ट विशेष ॥ ६२. ए चाख्यों इक से कहे, यामें फेर न सार । अति लम्पट जिह्वा तणो, लोलुप चित्त अपार ॥६३ चौपाई - हटवा तणो चून अरु दाल, व्रतधर इनको खावो टाल ।
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बींधो अन्न पीस दल ताहि, दया रहित बेचत हैं जाहि ॥ ६४ जीव कलेवर थानक सोय, चलतेहु तामाहे होय । परम विवेकी हैं जो मही, मांस दोष लख त्यागे सही ॥६५
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