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१२.
श्रावकाचार-संग्रह फिर तामें जावण दीजे, तब तै बसू पहर गणीजे । जब लों दधि खायो सारा, पीछे तजिये निरधारा ॥३३ दधिको धरिकै जे मथाणी, मथि है जो वणिता खाणी । मथितें ही जल जामाही, डारै फिरि ताहि मथाही ॥३४ वह तक पहर चहुंताई, खाने को जोग कहाई। मथिय पी जल नाखे, बहु बार लगे तिहि राखे ॥३५ बिन छाणों जल जिम जाणों, तैसी ही ताहि बखाणों। तातें जे करुणाधारी, खावें दधि तक्र विचारी ॥३६ मरयादा उलंघ जु खाहीं, मदिरा दूषण शक नाहीं। निज उदर-भरण को जेहा, बेचै दधि तक्र जु तेहा ॥३७ वै पाप महा उपजाही, या मैं संशय कुछ नाहीं। तिनको जु तक्र दधि लेई, खावें मतिमंद धरेई ॥३८ अर करहिं रसोई जातें, भाजन मध्यम है तातें। मरयादाहीण जो खावे, दूषण को पार न लावे ॥३९ इह दही तक्र विधि सारी, सुनिये जो भवि व्रत धारी। किरया अरु जो व्रत राखे, दधि तक न पर को चाखे ॥४० अब जावण की विधि सारी, सुनिये भवि चित्त अबधारी। जब दूध दुहाय घर लावे, तब ही तिहि अगनि चढ़ावे ॥४१ अबटाये उतार जु लीजे, रुपया तब गरम करीजे।
डारे पयमांहे जेहा, जमिहें दधि नहिं सन्देहा ॥४२ बांधे कपड़ा के मांहीं, जब नीरन बुन्द रहाहीं । तिहको दे बड़ी सुकाई, राखे सो जतन कराई ॥४३
जल मांहीं घोल सो लीजे, पयमांहे जांवण दीजे।। मरयादा भाषी जेहा, इह जावण मुं लखि लेहा ॥४४
इति गौरस मर्यादा सम्पूर्णम् ।
बच चर्माधि वस्तु दोष-वर्णनम् दोहा-चरम मध्य की वस्तु को, खात दोष जो होय ।
ताको संक्षेपहि कथन, कहुँ सुनो भविलोय ।।४५ चौपाई-मूये पशु को चरम जु होय, भोटै नर चंडाल जु कोय ।
ता चंडालहि परसत जबे, छोति गिने सगरे नर तबै ॥४६ घर आये जल स्नान करेय, एती संख्या चितहिं धरेय । पशू खाल के कूपा मांहि, घिरत तेल भंडसाल करांहि ॥४७ अथवा सिर पर धर कर ल्याय, बेचै सो बाजारहिं जाय । ताहि खरीद लेय घर माहि, खावे सबै शंकु कछु नाहिं ।।४८
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