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किचनसिंह-कृत क्रियाकोष चौपाई-तातो जल अरु छाछ मिलाय, तामें सौंले लूण उराय ।
भुजिया बड़ा नाख तिहि माहि, खावै बुद्धिहीन सो ताहि ॥१८ प्रथम छाछ कांजी के जाहि, तातो जल तामाहि पराय । अवर नाज को कारन याय, उपजै जीव न पार लहाय ॥१९ याको मरयादा अतिहीण, तातें तुरत तजो परवीण । ठंडी छाछ तास में जाण, तातें विदलहं दोष बखाण ॥२० प्रथम ही छाछ उष्ण अति करै, अरु वैसे ही जल कर धरै। जब दोऊ अति सीतल थाय, तब दुहुंअन को देय मिलाय ॥२१ अगिन चढ़ाय गरम फिरि करे, जब वह सीतलता को घरे।
भुजियादिक तामें दे डार, तसु सर्यादा को इम पार ॥२२ उक्तं च गाया-चउएइंदी विणिछह-अठ्ठह तिणिणि भणंति दह। चौरिंदी जीवहा बार बारह पंच भणंति ॥२३
छन्द चाल की ढाल जब चार महूरत माही, एकेंद्री जीव उपजाहीं। बारा घटिका अब जाये, वे इन्द्री तामें थाये ॥२४
बीते तब ही दुय जामा, तब होवे ते इन्द्री धामा। दुय अर्धपहर गति जानी, उपजे चउ इन्द्री प्राणी ॥२५ मिया दश दोय मुहरत, पंचेन्द्री जिय करि पूरत । है है नहिं संसै आणी, यां भाषे जिनवर वाणी ।।२६ बुध जन ऐंसो लखि दोषा, जिय तत्क्षण अघ को कोषा। कोई ऐसे कहिवे चाही, खाये विन जन्म गवाही ॥२७ मर्याद न संधि हैं मूला, तजिये व्रत अनुकूला।
खाय को पाप अपारा, छोड़ो शुभ गति है सारा ।।२८ सवैया- मूढ सुहै कुंजिय, भेद गहे मनि खेद धरो विकलाई।
खात सवाद लहै अहलाद महा उनमाद रु लंपट ताई। पातक जार महा दुख घोर सहै लखि ऐसिय भव्य तजाई जे मतिवन्त विवेकी सन्त महा गुणवन्त जिनन्द दुहाई ॥२९
इति कांजी निषेध वर्णनम् ॥
अथ गौरस मर्यादा कवन अब गोरस विधि सुन एवा, भाषो श्री जिनवर देवा।
दोहत महिषी जब गाये, तबते मर्याद गहाये ॥३० इक अन्तर महरत ताई, जीव न तामें उपजाई। राखे जाको जो खीरा, वैसे ही जीव गहीरा ॥३१
उपजे सम्मूर्छन जासे, कर जतन दया धर तासे । दोहे पीछे ततकाला, धर अगनि उपरि ततकाला ।।३२
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