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________________ १५० श्रावकाचार-संग्रह दीरघ आयु लहै सो सदा, जगत मान तिहकी शुभ मदा। सुर नर सुख की कितियक बात, अभय थकी तद्भव शिव पात ॥९९ शास्त्रदान देवातें सही, भवि अनक्रमते केवल लही । समवशरण विभवो अविकार, पावै तीर्थकर पद सार ।।६०० दया दान ते कीरति लहे, सगरे भले भले यों कहैं। निज भाबां माफिक गति थाय, दान दियो अहलो नहिं जाय ॥१ दोहा पात्र कुपात्र अपात्र को, पूरो भयो विशेष । अबै अन्य मत दान दस, कहो कथन अवशेष ॥२ सवैया गळ हेम गज गेह वाजि भूमि तिल जेह, क्रिया दासी रथ इह दस दान थाय है। इनको कथन करै याहि सठ जानि लेह, दान को दिवाय नरकादिक लहाय है। हिंसादिक कारण अनेक पापरूप जाणि, अवर लिवैया दुरगति को सिधाय है। अति ही कलंक निंद्यधाम पुण्य को न लेस, मतिमान लेन देन दुह को तजाय है ॥३ दोहा दसौं दान अनमति तणा, जैनी जन जो देह । अघ हिंसादि बढ़ायकै, कुगति तणा फल लेह ॥४ इति चतुर्थ शिक्षाव्रत अतिथि संविभाग कथन सम्पूर्ण । ___ अथ आहार दान के दोष का ब्योरा । छन्द चाल निपज्यो गृहमध्य आहार, तिह लेय सचित परिहार । अथवा सचित मिल जाई, इह अतीचार कहवाई ॥५ प्राशुक धरियो जो दर्व, ढांके सचित्तसों सर्व । दूजो गनिये अतीचार, याह कू बुधजन टार ॥६ आपण नहिं देय अहार, औरन को कहै एम विचार । ये हैं आहार दो भाई, तोजो दूषण इह थाई ॥७ मुनिको कोई देई आहार, चित में ईर्षा इह धार । हम ऊपर है क्यों देई, चौथो इह दोष गनेई ।।८ द्वारापेषण के काल, गृह काज करत तहां हालै। लंघि गए गेह में आवे, पंचम अतीचार कहावे ॥९ दोहा इह अतिथि-संविभाग के, अतीचार भनि पांच । इनहि टाल भविजन सदा, जिनवच भाषे सांच ॥१० व्रत द्वादश पूरण भये, पांच अणुव्रत सार । तीन गुणव्रत सार पुनि, शिक्षाबत निराधार ॥११ जैसी मति अवकाश मुझ, कियो ग्रन्थ अनुसार। किसनसिंह कहि अब सुनो कथन विधि परकार ।।१२ इति अतिथि संविभाग सम्पूर्ण । अथ सतरा नेमोंका ब्योरा । बोहा जे श्रावक आचार जुत, नित प्रतिपालै नेम । मरयादा दस सात तसु, मन वच क्रम धर प्रेम ॥१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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