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श्रावकाचार-संग्रह
पै मनमें कम्पै सु विवेक, तजे सचित्त ज वस्तु अनेक । केइक राखी तामें नेम, नितप्रति धारै ब्रतसो प्रेम ।।३८ कहा कहावै वस्तु सचित्त, सो धारी भाई निज चित्त । पत्र फूल फल छांडि इत्यादि, कूपल मूल कन्द बीजादि ॥३९ पृथिवी पाणी अग्नि जु वाय, ए सह सचित कहे जिनराय । जीव-सहित जो पुदगल पिंड, सो सब सचित तर्ज गुणपिंड ॥४० ये सह भाति सचित्त तजेय, सो निहचै जिनराज भजेय । जो न सर्वथा त्यागी जाय, तो कैयक ले नेम धराय ॥४१ संख्या सचित वस्तुकी कर, सकल वस्तुको नियम जु धरै । गिनती करि राखै सब वस्तु, तबहि जानिये वृत्त प्रशस्त ॥४२ लाडू पेड़ा पाक इत्यादि, औषधि रस अर चूरण आदि । बहुत वस्तु करि जे निपजेह, एक द्रव्य जानो बुध तेह ।।४३ वस्तु गरिष्ठ न खावे जोग, ए सब काम तने उपयोग। जो कदापि ये खाने परै, अलप-थकी अलपज आहरे ॥४४ सत्रह नेम चितारै नित्य, जानो ए सहु ठाठ अनित्य । प्रातथकी संध्यालोकरे, पुनि संध्या समये बुध धरै ॥४५ इती वस्तु तो त्यागै वीर, राति परै नहिं सेवै वीर । भोजन षटरस पान समस्त, चंदनलेप आदि परसस्त ॥४६ तजे राति तंबोल सुवीर, दया धर्म उर धारै धीर । गीत श्रवण जो होय कदापि, राखै नेम माहिं सो क्वापि ॥४७ नृत्यहंसो नहिं जाको भाव, पै न सर्वथा छांडयो चाव । जौ लग गृहपति कबहुँक लखै, सोह नेममाहिं जो रखे ॥ ४८ ब्रह्मचर्यसो जाको हेत. परनारीसों वीर सचेत । निज नारीहीमें संतोष, दिनको कबहु न मनमथ पोष ॥४९ रात्रि में पहले पहरी न, चौथी पहरो मनमथको न । दूजी तीजो पहर कदापि, परै सेवनी मैथुन क्वापि ॥५० सोहू अलप-थको अति अल्प, नित प्रति नहिं याको संकल्प। राखै नेम माहिं सह बात, बिना नेम नहिं पांव धरात ॥५१ स्नान रातिकों कबहु न करै, दिनको स्नान तनी विधि धरै । भूषण वस्त्रादिकको नेम, राखै जाबिधि धारै प्रेम ॥५२ वाहन शयनासनकी रीत. नेम माहिं धारै सहु नीति । वस्तु सचित नहिं निशिकों भख, रजनीमें जलमात्र न चखै ॥५३ खान-पानकी वस्तु समस्त. रात्रिविर्षे कोई न प्रशस्त । याविधि सतरा नेम जु धरै, सो व्रत धारि परम गति वरै ॥५४ नियम बिना धिग विग नर जन्म, नियमवान होवेहि अजन्म । यमनियमासन प्राणायाम, प्रत्याहार धारना राम ॥५५
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