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दौलतराम-कत क्रियाकोष ध्यान समाधि अष्ट ए अंग, योगतर्ने भाषे जु असंग। सबमें श्रेष्ट कही सुसमाधि, नियमथकी उपजे निरुपाधि ॥५६ राग-द्वषको त्याग समाधि, जाकरि टरै आघि अरु व्याधि । परम शांतता उपजे जहां, लहिए आतम भाव जु तहां ॥५७ मरण-काल उपजै जु समाधि, आय प्राप्त है आधि र व्याधि । नित्य अभ्यासी होय समाधि, तो न नीपजै एक उपाधि ॥५८ जो समाधितें छाडै प्राण, तो सदगति पावैहि सुजाण । नाहिं समाधिसमान जु और, है समाधि वृत्तनि सिरमौर ॥५९
छन्द चाल अब सुनि सल्लेखण भाई, जाकरि सहु व्रत सुधराई । उत्तम जन याकौं भावे, याकरि भवभ्रांति नसावें ॥६० जे द्वादस व्रत संजुक्ता, सल्लेखण कारई युक्ता ।। होवें जु महा उपशांता, पावें सुरसौख्य सुकांता ॥६१ अनुक्रम पहुंचै थिर थान, परकी सहु परणति भाने । यह एकहु निर्मलव्रत्ता, समदृष्टी जो दृढ़चित्ता ।।६२ करई सौ सुरपति होवै, पुनि नरपति कै शिव जोवे । इह भुक्ति मुक्तिदायक है, सब व्रत्तनिको नायक है ॥६३
सोरठा मेरो जो निजधर्म, ज्ञान सुदर्शन आचरण । सो नाशक वसु कर्म, भासक अमित सुभावको ॥६४ मैं भूल्यो निज धर्म, भयो अधर्मा जगविर्षे । तातें बाँधे कर्म, किये कुमरण अनंत मैं ॥६५ मरि-मरि चहुंगति माहि, जनम्यो मैं शठ भ्रांति घर । सो पद पायो नाहिं, जहां जन्म मरण न हुवै ॥६६ विना समाधि जु मर्ण, मर्ण मिटै नहिं हमतनों। यह एकैव जु सर्ण, है सल्लेखण अति गुणौ ॥६७ निज परणतिसों मोहि, एकत्त्व करिवे सक इहै। देख्यौ श्रुतिमें टोहि, ठोर ठौर याको जसा ॥६८ धरै निरंतर याहि, अंतिम सल्लेखण वरत । उपजै उत्तम ताहि, मरणकाल निस्संकता ॥६९ करिहों पंडित मर्ण, किये बाल मर्णा अमित । ले जिनवरको सर्ण तजिहों काया कालिमा ॥७० जिन आज्ञा अनुसार, अवश्य करूंगो अन्नसन । सल्लेखणव्रत धार, इहै भावना नित धरै ॥७१
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