SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 365
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३८ श्रावकाचार-संग्रह बेसरी छन्द मरण काल धरियेगो भाई, परि याकों नित प्रति चितराई। व्रत्त अनागत या विधि पालै, या व्रत करि सहु दूषण टालै ॥७२ मरणो नाहीं आतमतामें, तातें निरभय होय रह्या मैं। पर संबंध ऊपनी काया, ताका नाशा अवश्य बताया ॥७३ इनका ज्ञान हुए यह जीव, पावे निश्चय सुगति सदीव । मे अनादि सिद्धों अविनाशी, सिद्धसमानो अति सुखरासी ॥७४ सो अनादि कालहतें भूल्यो, परपरिणतिके रसमें फल्यौ । परपरिणति करि भयौ सदोषी, कर्म-कलंक उपार्जक रोषी ॥७५ जातें देह अनन्ती धारी, किये कुमर्ण अनन्ता भारी। मैं नहिं कबहं उपज्यो मूवी, मैं चेतन मायातें दूवौ ॥७६ मोते भिन्न सकल परभावा, मैं चिद्रूप अनन्त प्रभावा । भयो कषाय-कलंकित चित्ता, मैं पापी अति ही अपवित्ता ॥७७ बहु तन धरि धरि डारै भाई, तन तजिवौ इह मरण कहाई। तातें कुमरण मूल कषाया, क्षीण करै ध्याऊं जिनराया ॥७८ रागादिक तजि करौं सुमरणा, बहुरि न मेरे होइ कुमरणा। इहै धारना धरि व्रत धारी, दुर्बल करै कषाय जु सारी ॥७९ के गुरुके उपदेशथकी जो, कै असाध्य लखि रोग अती जो। मरणकाल जानै जब नीरे, तब कायरता धरइ न तीरे ।।८० चउ अहार तजि चारि कषाया, तजि करि त्यागै त्यागी काया। तन-सम्बन्ध उदय मति आवौ, तनमें हमरो नाहिं सुभावो ॥८१ सोरठा कर्म संजोगे देह, उपज्यो सो न रहायगो। तातें यासौं नेह, करनौ सो अति कुमति है ।।८२ चौपाई इहै भावना धारि विरागी, तजे कारिमा काय सभागी। सो श्रावक पाने शुभ लोका, षोड़श स्वर्ग लगे सुखथोका ॥८३ नर ह फिर मुनिके व्रत धार, सिद्ध लोककों शीघ्र निहारै। सल्लेखण सम व्रत नहिं दूजा, इह सल्लेखण त्रिभुवन पूजा ।।८४ तजि कषाय त्यागै बुध काया, सो संन्यास महा फलदाया। सल्लेखण संन्यास समाधी, अनसन एक अर्थ निरुपाधी ॥८५ पंडित मरणा वीरियमरणा, ये सब नाम कहें जु सुमरणा। सुमरणते कुमरण सब नासे, अविनासी पद शीघ्र प्रकासे ॥८६ यह संन्यास न आतम-घाता, कर्म-विधाता है सुख-दाता । अर जो शठ करि तीव्र कषाया, जलमें डूबि मरे भरमाया ॥८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy