SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 366
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दौलतराम-कृत क्रियाकोष जीवत गड़े भूमिमें कुमती, सो पावै दुरगति अति विमती । अगनि दाह ले अथवा विष करि, तजै मूढधी काया दुख करि ॥८८ शस्त्र प्रहारि जो त्यागै प्राणा, अथवा झंपापात बखाणा । ए सब आतम-धात बतावे, इनकरि बड़ भव-भव भरमाये ॥८९ हिंसाके कारण ये पापा, हैं जु कषाय प्रदायक तापा। तिनको क्षीण पारिवो भाई, सौ संन्यास कहें जिनराई ॥९० जीव-दयाको हेतु समाधी, विना समाधि मिटै न उपाधी। दया उपाधि मिटै बिन नाहीं, तातै दया समाधि ही माहीं ॥९१ व्रत शीलनिको सर्वस एही, इह संन्यास महा सुख देही । मुनिकों अनशन शिवसुख देई, अथवा सुर अहमिन्द्र करेई ॥९२ श्रावककों सुर उत्तम कार, नर करि मुनि करि भवदधि तारै । उभय धर्मको मल समाधो, मेटे सकल आधि अर व्याधी ॥९३ कायर मरणे बहुतहिं मूवा, अब धरि वीर मरण जगदूवा । बहत मेद हैं अनशनके जी, सबमें आराधन चउ ले जी ॥९४ दरसन ज्ञान चरन तप शुद्धा, ए चारों ध्या८ प्रतिबुद्धा। निश्चय अर व्यवहार नयनि करि, चउ आराधन से चितरि ॥९५ ताको सुनहु विचारि पवित्रा, जा करि छूटै भव भ्रम मित्रा। देव जिनेसर गुरु निरग्रन्था, सूत्र दयामय जैन सुपन्था ॥९६ नव तत्त्वनिकी श्रद्धा करिवी, सो व्यवहार सुदर्शन धरिवो। निश्चय अपनो आतमरामा जिनवर सो अविनश्वर धामा ॥९७ गुण-पर्याय स्वभाव अनन्ता, द्रव्य थकी न्यारे नहिं सन्ता। गुण-गुणिको एकत्व सुलखिवी, आतमरुचि श्रद्धाको धरिवी ।।९८ करि प्रतीति जे तत्त्वतनी जो, हनै कर्मकी प्रकृति घनी जो। सो सम्यकदर्शन तुम जानों, केवल आतम भाव प्रवानों ॥९९ अब सुनि ज्ञान अराधन भाई, सम्यकज्ञानमयी सुखदाई । नव पदार्थकों जातें भेदा, जिनवानी परमान सुवेदा ॥१३०० पंच परम पदकों प्रभु जानै, भयो जु दासा बोध प्रवाने । इह व्यवहारतनों हि स्वरूपा, निश्चय जानै हूँ जु अरूपा ॥१ शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध प्रवृद्धा, अतुल शक्तिरूपी अनुरुद्धा। .... ... .... ॥२ चेतन अनन्त गुणातम ज्ञानी, सिद्ध सरीखो लोक प्रमानी । अपनो भाव भायवो भाई, सो निश्चय ज्ञान जु शिवदाई ॥३ पनि सनि सम्यकचारित रतना. स-थावरको अति ही जतना। आचरिवौ भक्ति जिन मुनिकी, आदरिवौ विधि जोहि सु पुनको ॥४ पंच महाव्रत पंच सु समिती, तीन गुपति धारै हि जु सुजती। अथवा द्वादस व्रत्त सुधरिवी, श्रावक संयमको अनुसरिवौ ॥५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy