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________________ श्रावकाचार-संग्रह ए सब हैं व्यवहार चरित्रा, निम्चय आतम अनुभव मित्रा। जो सु स्वरूपाचरण चवित्रा, थिरता निजमें सो सु पवित्रा ॥६ ए रतनत्रय भाषे भाई, चौथो सम्यक तप सुखदाई। ब्यवहार द्वादस तप सन्ता, अनसन आदि ध्यान परजन्ता ॥७ निश्चय इच्छाको जु निरोधा, पर परिणति तजि आतम शोधा। अपनो आतम तेजकरी जो, सो तप भाषहि कर्महरी जो ।।८ ए चउ आराधन आराधै, सो संन्यास घरै शिव साधे । अरहन्ता सिद्धा साधू जे, केवलि कथित सुधर्म दया जे ॥९ ए चउ शरणा लेइ सु ज्ञानी, ध्यावे परम ब्रह्मपद ध्यानी। णमोकार मन्तर जपतो जो, ओंकार प्रणवे रटतो जो ॥१० सोहं अजपा अनादह सुनतो, श्रीजिन बिम्ब चित्तमो मुनतौ। धर्मध्यान धरन्तौ धोरी, लगो जिनेसुर पदसों डोरी ॥११ ध्यावन्तौ जिनवर गुन धीरा, निजरस रातौ विरकत वीरा । दुर्बल देह अनेह जगतसों, करि कषाय दुर्बल निज धृतिसों ॥१२ क्षमा करै सब प्राणी गणसों, त्यागै प्राण लाय लव जिनसों । सो पण्डितमरणा जु कहावै, ताको जस श्रुतिकेवलि गावै ॥१३ सल्लेखणके बहुते भेदा, भाषे जिनमत पाप उछेदा। है प्रायोपगमन सब माहें, उत्तमसों उत्तम सक नाहे ॥१४ ताको अर्थ सुनौ मनलाये, जाकरि अपनों तत्त्व लखाये । प्रायः कहिये मित्र सर्वथा, उप कहिये स्वसमीप निर्व्यथा ।।१५ गमन जु कहिये जाग्रत होवो, रात दिवस कबहूं नहिं सोवौ । सो प्रायोपगमन संन्यासा, सर्व गुणाकरि धर्म अध्यासा ॥१६ जिनकों बारंबार चितारे, क्षण-क्षण चेतन तत्त्व निहारे । जग सन्तति तजि होइ इकाकी, कीरति गावें श्रीगुरु ताकी ।।१७ तजै आहार विहार समस्ता, भजै विचार समस्त प्रशस्ता । इह भव पर भवकी अभिलाषा, जिन करि होइ निरोह अभासा ॥१८ या जड़ तनका सेवा आपु न, करै न करावे विधि सों थापु न । अति वराग्य परायण सोई, तजे अनातम भाव सवोई ॥१९ गहन बनें भू सज्जा धारी, निसाह जगतजोगथो भारी । चित्त दयाल सहनशीलो जो, सहै परिसह नहिं ढोलो जो ॥२० जो उपसर्ग थको नहि कंपै, जाकों कायरता नहि चंपै । भागो लोक प्रपंच-थकी जो, परपरिणति जातें दिसिकी जो ॥२१ या संन्यास थकी जो प्राणा, त्यागै सो नहिं मुवी सुजाणा । सुर-शिवदायक है यह व्रता, यामैं बुधजन करै प्रवृत्ता ॥२२ पंच अतिचारा जो त्यागै, तब संन्यास-पंथकों लागे । सो तजि पांचों ही अतिचारा, ये तो सल्लेखण व्रत धारा ॥२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001555
Book TitleSharavkachar Sangraha Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Achar, & Religion
File Size23 MB
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