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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
जीवित- अभिलाषा अघ पहिला, ताकों वारइ सो गिनि गहिला । देखि प्रतिष्ठा जीयौ चाहै, सो सल्लेखण नहि अवगाहै ॥२४ दूजौ मरण- तर्नी अभिलाषा, जो धारे निज रस नहि चाखा । रोग कष्ट कर पीड्यो अति गति, मरिवौ चाहे सो है शठमति ॥ २५ ताजी सुहृदनुराग सुगनिये, मित्रथकी अनुराग सु धरिये । रवी आनि बन्यू परि मित्रा, मिल्यौ न हमसां जाहु पवित्रा ||२६ दूरि जु सज्जन तामँ भावा, मिलिवेको अति करहि अपावा । अथवा मित्र कनारे जो है, ताके मोह-थको मन मोहै ॥२७ यों अज्ञानथको भव भरमै, पावै नहिं सल्लेखण धरमैं | पुनि सुखानुबंधो है चौथो, सुख संसार तनों सहु थोथी ॥ २८ या तनमें भुगते सुख भोगा, सो सब यादि करें शठ लोगा । यों नहि जानें भव सुख दुख ए, तोन कालमें नाहीं सुख ए ।। २९ इनको सुख जानें जो भाई, भोंदू इनसों चित्त लगाई । सो दुख लहे अनंता जगके, पात्रै नहि गुण जे जिन-मगके ॥३० पंचम दोष निदान प्रबंधा, जो धारइ सो जानहु अंधा । परभवमैं चाहे सुख भोगा, यों नहिं जाने ए सहु रोगा ||३१ इन्द्र चन्द्र नागेन्द्र नरेन्द्रा, हूवाँ चाहे पुनि अहमिन्द्रा । व्रतको बेचै विषयनि साटे, सो जड़ कर्मबंध नहि काटे ||३२ ए पाचौं तजि धरहि समाधी, सो पावै सद्गति निरुपाधी । या व्रतसम नहि दूजो कोई, सबमैं सार जु इह व्रत होई ॥३३ याको जस सुर नर मुनि गावें, धीर चित्त यासों लव लावें । नमो नमों या सुमरणकों है, जो काटै जलदी कुमरणको है ||३४
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दोहा
उदय होउ सल्लेखणा, जोहि निवारे भ्रांति । आवै बोध जु घटिविषै, पइये परम प्रशांति ॥ ३५ कहे बरत द्वादश सबै, अर सल्लेखण सार । अब सुनि तप द्वादश तनों, भेद निर्जराकार ॥३६ प्रथमहिं बारह तपविषै, है अनशन अविकार । जाहि क हैं उपवास गुरु, ताकी सुनहु विचार ॥ ३७ इन्द्रिनिकी उपसांतता, सो कहिये उपवास । भोजन करते हू मुनी, उपवासे जिनदास ||३८ जो इन्द्रिनिके दास है, अज्ञानि अविवेक । करै उपासा तउ शठा नहि व्रत धार अनेक ||३९ मुनि श्रावक दोनिकों, अनशन अति मुणदाय । जाकरि पाप विनाश ह्वे, भाषे श्रीजिनराय ॥४०
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