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श्रावकाचार-संग्रह
रुलिहें भव माहिं अनंता, जे परधन प्राण हरता। चुगली करि मतिहि लुटावो, काहूकू नाहिं कुटावौ ॥७९ परको इज्जति मति हरि हो, परको उपगार जु करिहो। धन धान नारि पसु बाला, हरिये कछुके नहि लाला ।।८० काहू को मन नहिं हरिये, हिग्दा में श्री जिन धरिये। तिर नर जीवन की जीवी, मेटो मति करुणा कीवी ।।८१ तुम शल्य न राखो बीरा, कर शुद्ध चित्त गुण धीरा। रोका बांधी मति करिहो, काहू की सोंपि न हरिहो ॥८२ बोलो मति दुष्ट जु बांके, तुम दोष गही मति काके । काहू को मर्म न छेदौ, काहू को क्षेत्र न भेदौ ।।८३ काहू की कछु नहिं बस्ता, मति हरहु होय शुभ अस्ता। इह व्रत धारो वर वीरा, पावो भव सागर तीरा ॥८४ जाकरि कै कर्म विध्वस्ता, सो भाव धरी परशस्ता। तृण आदि रत्न परजंता, पर घन त्यागौ बुधिवंता ।।८५ हरिवी रागादिक दोषा, करवौ कर्मन को सोषा। हरि मर्म धर्म धरि भाई, हूजे त्रिभुवन के राई ॥८६ अपनो अर परको पापा, हरिये जिन वचन प्रतापा। छांई जु अदत्तादाना, करि अनुभव अमृत पाना ॥८७ चोरी त्यागें शिव होई चोरी लागे शठ सोई। चोरी के दोय प्रकारा, निश्चै ब्योहार विचारा ॥८८ निश्चै चोरी इह भाई, तजि आतम जड़ लव लाई । पर परणति प्रणमन चोरी, छोड़ें ते जिनमत धोरी ॥८९ तजिकै पर परणति जीवा, त्यागी सब भाव अजीवा । यह देह आदि पर वस्ता, तिनसों नहिं प्रीति प्रशस्ता ॥९० बिन चेतन जे परपंचा, तिनमें सुख ज्ञान न रंचा। इनमें नहिं अपनों कोई, अपनों निज चेतन होई ॥९१ तातें सुनि के अध्यातम, छांडौ ममता सब आतम । अपनो चेतन धन लेहो, परकी आसा तजि देहो ॥९२ जे ममता पंथ न लागे, निश्चै चोरी ते त्यागे। जब निश्चै चोरी छूटै, तब काल भूपाल न कूटै ॥९३ इह निश्चे व्रत बखाना, या सम और न कोई जाना। शिव पद दायक यह वृत्ता, करिये भवि जीव प्रवृत्ता ॥९४ जिन त्यागी परकी ममता, तिन पाई आतम-समता। अब सुनि व्यवहार सरूपा, जा विधि जिनराज प्ररूपा ॥९५ इक देव जिनेसुर पूजौ, सेवौ मति जिन बिन दूजी। बिन गुरु निरग्रन्थ दयाला, सेवी मति औरहि लाला १६
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