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दौलतराम-कृत क्रियाकोष सुनि श्री जिन जूके ग्रन्था, मति सुनहु और अप-पंचा। मिय्यात समान न चोरी, धार तिनकी मति भोरी ॥९७ इह अंतर बाहिज त्यागें, तब वृत्त विधान हिं लागें। सम्यक् ह आतम भावा, मिथ्यात अशुद्ध विभावा ॥९८ सम्यक निश्चय व्यवहारा. सो धारो तजि उरमारा। वर व्रत्त अचौरज धारें, ते सर्व दोष को टारें ॥९९ या बिन नहिं साधु गनिया, या बिन नहिं श्रावक भनिया। श्रावक मुनि द्वय विध धर्मा, यह व्रत्त दुहुनि को मर्मा ॥१०० मुनि के सब ममता छूटी, समता तें दुरमति टूटी। मुनि उपधि न एक धराहो, कछु छाने नाहिं कराहीं ॥१ देहादिक सों नहिं नेहा, बरसै घट आनंद मेहा । मुनि के सब दोष जु नासें, तातें सु महाव्रत भाषे ॥२ मुनि के कछु हरनों नाही, चित लागै चेतन माहीं। श्रावक के भोजन लेई, नहिं स्वाद विर्षे चित देई ॥३ काम न क्रोध न छल माना, नहिं लोभ महा बलवाना। जे दोष छियालिस टालें, जिनवर को आज्ञा पालें ॥४ ते मुनिवर ज्ञान सरूपा, शुभ पंच महाव्रत रूपा । गृहपति के कछु इक धंधा, कछु ममता मोह प्रबन्धा ॥५ छानें कछु करनों आवै, तातें अणुव्रत कहावै । कूपादिक को जल हरिवो, इह किंचित दोषहु परिवो॥६ मोटे सब त्यागें दोषा, काहु को हरिये न कोषा। त्यागी परधन को हरिवो, छांडो पापनि को करिवौ ॥७ संक्षेप कही यह बाता, आगे जु सुनहु अब भ्राता। इह अणुव्रत को जु सरूपा, जिनश्रुत अनुसार प्ररूपा ।।८ अब अतीचार सुनि भाई, त्यागी पंचहि दुखदाई। है चोरी को जु प्रयोगा, सो पहलो दोष अजोगा ॥९ चोरी को माल जु लेनों, इह दूजो अघ तजि देनों। थोरे मोले बड़ बस्ता, लेवी नहिं कबहु प्रशस्ता ॥१० राजा को हासिल गोपे, राजा की आणि जु लोपे । इह तीजो दोष निरूपा, त्यागौ व्रत धारि अनूपा ॥११ देवे के तोला घाटै, लेवे के अधिका बाटै।। इह अतिचार है चौथो, त्यागो शुभमति ते थोथो ॥१२ वधि मोल में घटि मोला, भेले है पाप अतोला। इह पंचम है अतिचारा, त्यागें जिन मारग धारा ॥१३ ए अतीचार गुरु भाखे, जैनी जीवनिनें नांखे। चोरो करि दुरगति होई, चोरी त्यागें शुभ सोई ॥१४
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