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श्रावकाचार-संग्रह
चोरी तजि अंजन चोरा, तिरियो भव-सागर थोरा । लहि महामंत्र तप गहिया, ध्यानानल भववन दहिया ॥१५ अंजन हूओ जु निरंजन, इह कथा भव्य मनरंजन । बहुरि यो नृपश्रेणिक पुत्रा, है वारिषेण जगमित्रा ।। १६ कर परघन को परिहारा, पायौ भवसागर पारा । चोरी करि तापस दुष्टा, पंचागन साधनि पुष्टा ॥। १७
हि कोटपालकी त्रासा, मरि नरक गयौ दुख भाषा । दलिद्दर का मूल जु चोरी, चोरी तजि अर तजि जोरी ॥१८ सब अघ तजि जिनसों जोरी, बिनऊँ भैय्या कर जोरी । चोरी तजियाँ शिव पावैं, यह महिमा श्री जिन गावे ॥१९ चोरी तें भव-भव भटके, चोरी तें सब गुन सटकै । जो बुधजन चोरी त्यागे, सो परमारथ पथ लागे ॥२०
बोहा
परधन के परिहार बिन, परम धाम नहि होय । भये पार ते तीसरे, व्रत्त बिना नहि कोय ॥ २१ जे बूढ़े नर नरक में, गये निगोद अजान । ते सब परधनहरणतें, और न कोई बखान ॥ २२ ब्रत्त अचोरिज तीसरो, सब व्रत्तनि में सार । जो याकों धारै व्रत्ती, सो उतरे संसार ॥ २३ याकी महिमा प्रभु कहें, जो केवल गुणरूप । पर गुण रहित निरंजना, निर्गुण निर्मलरूप ॥२४ कहें गणिद मुनिन्दवर, करें भव्य परमान । जे धारें ते पावही, पूरण पद निर्वान ||२५ अल्पमती हम सारिखे, कहें कौन विधि बीर । नमस्कार या वृत्तकों, धारे धर्मी धीर ॥२६ जे उरझे ते या बिना, इह निश्चय उर धारि । जे सुरझे ते या करी, यह व्रत है अघहारि ॥ २७ दया सत्य संतोष अर, शीलरूप है एह । उतरै भवसागर थकी, धरै या थकी नेह ॥२८ दया सत्य अस्तेयकौ, करि वन्दन मन लाय । भाषों चौथो शीलव्रत, जो इन विगर न थाय ॥२९
इति अचौर्याणुव्रत वर्णन
प्रणमि परम रस शांति कों, प्रणमि धरम गुरुदेव । बरण सुजस सुशील को, करि शारद की सेव ||३०
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