________________
२५७
दौलतराम-कृत क्रियाकोष शीलव्रत को नाम है, ब्रह्मचर्य सुखदाय । जाकरि चर्या ब्रह्म में, भव वन भ्रमण नशाय ॥३१ब्रह्म कहावें जीव सब, ब्रह्म कहावें सिद्ध । ब्रह्मरूप कैवल्य जो, ज्ञान महा परसिद्ध ॥३२ ब्रह्मचर्य सो वृत्त ना, न पर ब्रह्म सो कोय । व्रतो न ब्रह्म-लवलीन सो, तिरै, भवोदधि सोय ॥३३ विद्या ब्रह्म-विज्ञान सी, नहीं दूसरी जान । विज्ञ नहीं ब्रह्मज्ञ सो, इह निश्चय उर आन ॥३४ ब्रह्म वासना सारिखी, और न रस की केलि । विषय वासना सारिखी, और न विष की बेलि ॥३५ आतम अनुभव सिद्ध सी, और न अमृत बेलि । नहीं ज्ञान सो बलवता, देहि मोह को ठेलि ॥३६ अव्रत नाहिं कुशील सो, नरक निगोद प्रदाय । नहीं सील सो संजमा, भाषे श्री जिनराय ॥३७ धर्म न श्री जिनधर्म से, नहिं जिनवर से देव । गुरु नहिं मुनिवर सारिखे, रागी सो न कुदेव ॥३८ कुगुरु न परिग्रह धारित, हिंसा सो न अधर्म । मर्म न मिथ्या सूत्र सो, नहीं मोह सो कर्म ॥३९ द्रष्टा न कोई जीव सो, गुन न ज्ञान सो आन । ज्ञान न केवल ज्ञान सो, जीवं न सिद्ध समान ॥४० केवलदर्शन सारिखो, दर्शन और न कोई। यथाख्यात चारित्र सो, चारित और न होइ ।।४१ नहिं विभाव मिथ्यात सो, सम्यक सो न स्वभाव । क्षयिक सो सम्यक नहीं, नहीं शुद्ध सो भाव ॥४२ साधु न भीण कषाय से, श्रेणि न क्षपक समान । नहिं चौदम गुण थान सो, और कोई गुणथान ॥४३ नहिं केवल प्रत्यक्ष सों, और कोई परमाण । सुकल ध्यान सो ध्यान नहिं, जिनमतसो न बखाण ॥४४ अनुभव सो अमृत नहीं, नहि अमृत सो पान । इन्द्री रसनासी नहीं, रस न शांति सो आन ॥४५ मनोगुप्ति सी गुप्ति नहि, चचंल मन सो नाहिं । निश्चल मुनि से और नहिं, नहीं मौन मन माहिं ॥४६ मुनि से नहिं मतिवंत नर, नहिं चक्रो से राव । हलधर अर हरि सारिखो, हेत न कहूँ लखाव ॥४७ प्रतिहरि से न हठी भए, हरि से और न सूर। हर से तासम धार नहिं, बहु विद्या भरपूर ||४८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org