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श्रावकाचार-संग्रह
नीबू आम्रादिक जे फला, लूण माहिं डारे नहि भला । याको नाम होय संघाण, त्यागें पण्डित पुरुष सुजाण ॥ १०४ अथवा चलित रसा सब वस्त, संघाणा जाणों अप्रशस्त । बहुरि जलेबी आदिक जोय, डोहा राव मथाणा होय ॥ १०५ लूण छांछ माहीं फल डारि, केर्यादिक जे खांहि गंवारि । तेहि विगारें जन्म स्वकीय, जैसें पापी मदिरा पीय ॥ १०६ अब सुनि चुन तनी मरजाद, भाषै श्री गुरुजी अविवाद । शीतकाल में सातहि दिना, ग्रीषम में दिन पांचहि गिना ॥ १०७ वरषा रितु माहीं दिन तीन, आगे संधाणा गण लीन । मरजादा बीतें पकवान, सो नहीं भक्ष कहें भगवान || १०८ ताहि भखें जु असूत्री लोक, पावैं दुरगति में दुख शोक । मर्यादा की विधि सुनि धीर, जो भाषी गौतम प्रति वीर ॥ १०९ अन्न जलादिक नाहि, कछु सरदी जामांहि नाहि ।
बूरा और बतासा आदि, बहुरि गिंदौडादिक जु अनादि ।। ११० ताकी मर्यादा दिन तीस, शीतकाल में भाषी ईश । ग्रीष्म पंदरा वर्षा आठ, यह धारी जिनवाणी पाठ ॥ १११ अर जो अन्नतणों पकवान, जलको लेश जु याहे जान । आठ पहर मरजादा तास, भाषें श्री गुरु धर्म प्रकाश ॥ ११२ जल - वर्जित जो चूनहि तनीं, घृत मीठी मिलिके जो बनीं । ताकी चून समानहिं जानि, मरजादा जिन-आज्ञा मानि ॥११३ भुजिया बड़ा, कचौरी पुवा, मालपुवा घृत तेलहि हुआ । इत्यादिक है अवरहु जेह, लुचई सीरा पूरी एह ॥ ११४ ते सब गिनी रसोई समा, यह उपदेश कहे पति रमा । दारि भात कड़ही तरकारि, खिचड़ी आदि समस्त विचारि ॥ ११५ दो पहर इनकी मरजाद, आगे श्री गुरु कहें अखाद । केई नर संधारक त्यागि, ल्यूजी खाँय सवादह लागि ।। ११६ ha नीबू आदि उकालि, नाना विधि सामग्री घालि । सरस्यू ं केरी तेल तपाय, तामें तलें सकल समुदाय ||११७ जिह्वालंपट बहु दिन राख, खांय तिन्हें मतिमंद जु भाख । तरकारी सम ल्यूजी एह, आगे संधाणा समुझेह ॥ ११८ अणजाण्यू फल त्यागहु मित्र, अणछाण्यो जल ज्यों अपवित्र । त्यागी कंदमूल बुधिवंत, कंदमूल में जीव अनंत ॥ ११९ गरि न कबहुँ भखहु गुणवन्त, गारी कबहु न काढ़उ संत । डरी गरि में जीव असंख, निन्दै साधु अशंक, अकख ॥ १२० जा खाये छूटें निज प्राण, सो विषजाति अभक्ष प्रवान । आफू और महोरा आदि, तजी सकल मुनि सूत्र अनादि ॥ १२१
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