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मंगलाचरण
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काची माखण अति हि सदोष, भखिया करै सबै शुभ सोख । पहले आमिष दूषण माहिं, पुनि-पुनि निन्द्यौ संशय नाहिं ॥१२२ फल अति तुच्छ खाहु मति वीर, निन्दे महावीर जगधीर।। पालौ राति जमावै कोय, ताहि भखत दुरगति फल होय ॥१२३ निज सवाद तजि बै विपरीत, सो रस-चालित तजो भवभीत । आगे मदिरा दूषण महे, निद्यौ ताहि सु बुध नहिं गहै ।।१२४ ए बाईस अभख तजि सखा, जो चाही अनुभव रस चखा। अवर अनेक दोषके भरे, तजो अभख भव्यनि परिहरे ॥१२५ फूल जाति सब ही दोषीक, जीव अनन्त फिरे तहकीक । कबहुं न इनकों सपरस करो, इह जिन आज्ञा हिरदै धरौ ॥१२६ खावो और संघिवी सदा, इनकू तजहु न ढांकहु कदा। शाक पत्र सब निंद बखानि, त्याग करौ जिन आज्ञा मानि ॥१२७ नेम धर्म व्रत राख्यौ चहै, तो इन सबकू कबहुं न गहै। झाड़ तनें बड़ वोरि जु तने, तजी वीर त्रस जीव जु घनें ॥१२८ पेठा और कोहला तजौ, तजि तरबूज जिनेसुर भजौ । जांबू और करोंदा जेहु, दूध झरै त्यागौ सहु तेह ।।१२९ कन्द शाक दल फल जु त्यागि, साधारण फलतें दुर भागि । जो प्रत्येकहु छांड़े वीर, ता सम और न कोई धीर ॥१३० जो प्रत्येक न त्यागे जाय, तो परमाण करो सुखदाय । तेहु अलप ही कबहुंक खाय, नहिं तोड़े न तुडावन जाय ॥१३१ ताजा ले बासी नहिं भखै, रस चलितादिक कबहुँ न चखै। हरित कायसों त्यागे प्रीति, सो जानें जिन-मारग रीति ।।१३२ जे अनन्तकाया दुखदाय, सब साधारण त्यागौ राय । तजि केदार तूंबड़ी सदा, खाहु म नाली ढिस तुम कदा ॥१३३ कचनारादिक डौंड़ी तजौ, तजि अण फोड़यो फल जिन भजौ । पहली बिदलतनं अति दोष, भाख्यो भेद सुनहु तजि रोष ॥१३४ अन्न मसूर मूंग चणकादि, तिनकी दालि जु होय अनादि । अर मेवा पिस्ता जु निदाम, चारोली आदिक अतिनाम ॥१३५ जिन जिन वस्तुनि को है दालि, सो सो सब दधि भेला टालि । अर जो दधि भेलो, भिष्टान तुरतहिं खावा सूत्र प्रमान ॥१३६ अन्तमुहरत पीछे जीव, उपजें इह गावें जगपीव । तातें मीठा जुत जो दही, अन्तमुहूरत पहले गही ॥१३७ दधि-गुड़ खावो कबहुं न जोग, वरजें श्री वस्तु अजोग। पुनि तुम सुनहुं मित्र इक बात, राई लण मिलें उतपात ॥१३८ . तातें दही मही में करै, तजी रायता कांजी वरै।। घी ताजा गहिबी भवि लोय, सूद्रनिको घृत जोगि न होय ॥१३९
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