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श्रावकाचार-संग्रह स्वाद-चलित जो खावै घीव, सो कहिये अविवेकी जीव । धिरत सोधिको लेवी अल्प, भजिवी जिनवर त्यागि विकल्प ॥१४० घृतहू छाड़े तो अति तपा, नीरस तप धरि श्रीजिन जपा । सिंघव लोंन वतिनिको लेन, कृत्रिम लोन सबै तजि देन ॥१४१ जो सिंघवहू त्यागे भया, महा तपस्वी श्रुत में लया। अब तुम गोरस की विधि सुनों, जिनवर की आज्ञा उर गुणों ॥१४२ दोहत जब महिषी अर गाय, तबतें इह मरजाद गहाय । काचो दूध न राखै सुधी, 8 घटिका राखें तो कुधी ॥१४३ काचो दूध न लेवौ वीर, अणछायूं पय तजिवो धीर । अंतर एक मुहूरत बसा, उपजे जीव अंसखित वसा ॥१४४ जाको पय है तैसे जीव, प्रगटें इह भावे जगपीव। पंचेन्द्री सम्मूर्छन प्राणि, भैया तू जिनवचन प्रवाणि ॥१४५ . इह तो दूध तणी विधि कही, अब सुनो दही महीकी सही। जामण दीयो ह जिंह दिना, ताके दूजो दिन शुभ गिना ॥१४६ पीछे दधि खावी नहिं जोगि, इह भा जिनराज अरोगि। दधि को मथियौ पानी डारि, ताको नाम जु छांछि विचारि ॥१४७ ताही दिवस होय सो भक्ष, यह जिन आज्ञा हैं परतक्ष । मथता ही जा माहीं तोय, बहुर्यो वारि न डार्यो होय ॥१४८ माथिया पाछे काचौ वारि, नाख्यो सो लेवी जु विचारि । जेतो काचा जलको काल, तेती ही ताको जु विचारि ॥१४९ छणयूं जल सो काचौ रहै, एक मुहूरत जिनवर कहै । आगें त्रसजीवा उपजंत, अणछणयां को दोष लगत ॥१५० तिक्त कषाय मिल्यो जो नीर, सो प्राशुक भाख्यौ जिन वीर । दोय पहर पहिली ही गहो, यह जिन आज्ञा हिरदै बहो ॥१५१ तातो जल जो भात उकाल, आठ पहर मरजादा काल । आगे सनमर्छन उपजाहि, पीवत धर्मध्यान सब जाहिं ॥१५२
दोहा अघ-तरुवर को मूल इह, मोह मिथ्यात जु होय । राग द्वेष कामादिका, ए सकंध बहु जोय ॥१५३ अशुभ क्रिया शाखा धनी, पल्लव चंचल भाव । पत्र असंजम अव्रता छाया नाहिं लखाव ।।२५४ इह भव दुख भादं पहुप, फल निगोद नरकादि । इह अघ-तरु को रूप है, भव-वन मांहि अनादि ॥१५५
चौपाई क्रिया कुठार गहै कर कोय, अघ-तरुवरको काटै सोय । जे बेचें दधि और जु मठा, उदर भरण के कारण शठा ॥१५६
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