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दौलतराम - कृत क्रियाकोष
तिनकों मोल लेय जे खाहिं, ते नर अपनों जन्म नसाहिं । तातें मोलतनों दघि तजौ, यह गुरु आज्ञा हिरदे भजी ॥ १५७ दधी जमावे जा विधि व्रती, सो विधि धारहु भाषह जती । दूध दुहाकर ल्यावे जबे, ततछिन अर्गानि चढावे तबे ॥ १५८ रूपी गरम करे पयमांहि, जामण देय जु संसै नाहि । जमें दही या विधि कर जोहु, बाधे कपरा माहीं सोहु ॥ १५९ बूंद रहे नहिं जल की एक, तबहिं सुकाय घरै सुविवेक । दही बड़ी इह भाषी सही, गृही जमावे तासों दही ||१६० अथवा दधि में रूई भेय, कपरा मेय सुकाय घरेय । राखे इक द्वै दिन ही जाहि, बहुत दिना राखे नहि ताहि ॥ १६१ जल में घोलिर जामण देय, दधि ले तो या विधि करि लेय । और भाँति लेवो नहि जोगि, भाखें जिनवर देव अरोगि ॥ १६२ शीतकाल की इह विधि कहीं, उष्णऊ बरषा राखे नहीं ! जो हि सर्वथा छाँड़े दधी, तासम और न कोई सुधी ॥१६३ सुद्रतनें पात्रनि को दुग्ध, दधि घृत छाछि भखें ते मुग्ध । उत्तम कुल हू जे मतिहीन, क्रियाहीन जु कुविसन अधीन ॥ १६४ तिनके घरको कछहु न जोगि, तिनकी किरिया बहुत अजोगि । दूध ऊँटणी भेनि तनों, निद्यौ जिनमत माहीं घनों ॥। १६५ गो महिषी बिन और न भया, कबहु न लेनों नाहीं पया । महिषी दूध प्रमाद करेय, तातें गायन की पय लेय ॥ १६६ नीरसव्रत घर दूध तजे, तातें सकल दोष ही भजे । हा बिकते चूनरु दालि, बुधजन इनको खावी टालि ॥१६७ बोधो खोटो पीसै दले, जीवदया कैसे करि पले । चूनो संखतणो कसरि इनकों निंद कहें जिनसूरि ॥१६८
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बोहा
चरम - सपरसी वस्तु को, खातें दोष जु होय । ताको संक्षेप कथन, कहों सुनों भवि लोय ॥। १६९. मूये पसूके चर्मकों, चीरे जो चंडार ।
ता चंडालहि परसिके, छोति गिने संसार ॥ १७० तो कैसे पावन भयो, मिल्यो चर्म सों जोहि । आमिष तुल्य प्रभू कहें, याहि तजी बुध सोहि ॥ १७१ उपजें जीव अपार सुनि, जिनवानी उर धारि । जा पसुको हैं चर्म जो, तेसे ही निरधारि ॥ १७२ सन्मूर्छन उपजे जिया, तातें जल घृत तेल । चर्म सपरसे त्यागिये, भार्पे साघु अचेल ॥१७३
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