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श्रावकाचार-संग्रह जैसे सूरज कांच के, रूई बीचि घरेय । प्रगटै अगनि तहाँ सही, रूई भस्म करेय ॥१७४ तैसे रस अर चर्म के जोगै, जिय निपजांहि । खावे वारे के सकल, धर्मब्रत लुपि जाहि ॥१७५ जीमत भोजन के समैं, मुवी जिनावर देखि । तजै नहीं जे असनको, ते दुरबुद्धि विशेखि ।।१७६ जे गंवार पाठातनी. फली खाय मतिहीन । तिनके घट नहिं समुझि है, यह भावे परवीन ॥१७७
रसोई, परंडा, चक्की आदि क्रियाओं का वर्णन । चौपाई जा घर माँहि रसोई होय, धारे चंदवा उत्तम सोय। बहुरि परंडा ऊपर ताणि, उखली चाकी आदिक जाणि ॥१ फटके नाज बीणिये जहाँ, चून चालिये भैय्या तहाँ । अर जिंह ठौर जीमिये धीर, पुनि सोवे की ठोहर वीर ॥२ तथा जहाँ सामायिक करै, अथवा श्री जिनपूजा धरै । इतने थानक चंदवा होय, दीखै श्रावक को घर सोय ॥३ चाकी अर उखली परमाण, ढकणा दीजे परम सुजाण । श्वान विलाव न चाटै ताहि, तब श्रावक को धर्म रहाहि ॥४ मूसल धोय जतन सों धरै, निशि घोटन पीसन नहिं करै। छाज तराजू अर चालणी, चर्मतणी भविजन टालणी ॥५ निशिकों पीसै घोटे दले, जीवदया कबहूँ नहिं पले । चाकी गाले चून रहाय, चोटी आदि लगै तसु आय ॥६ निसिको पीसत खबर न परे, तातें निशि पीसन परिहरे । तथा रातिको भीज्यो नाज, खावी महापाप को साज ॥७ अंकूरे निकसे ता माहिं, जीव अनन्ता संशय नाहिं । तातै भीज्यौ नाज अखाज, तजौ मित्र अपने सुखकाज ।।८ सुल्यो सड़यो गडियो जो धान, फूली आयो होय नखान । स्वाद चलित खावी नहिं वीर, रहिवो अति विवेकसूं घीर ॥९ नहिं छीवै गोवर गोमूत, मल, मूत्रादिक महा अपूत । छाणा ईधन काज अजोगि, लकड़ी हू वीधी नहिं जोग ॥१० जेती जाति मुरब्बा होय, लेणा एक दिवस ही सोय । पीछे लागे मधुको दोष, तासम और न अध को पोष ।।११ आथाणा का नाम अचार, भखें अविवेकी अविचार । या सम अणाचार नहिं कोय, याको त्याग करें बुध सोय ॥१२
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