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दौलतराम-कृत क्रियाकोष राह चल्यो भोजन मति खाहु, उत्तम कुलको धर्म रखाहु । निकट रसोई भोजन करो, अणाचार सब ही परिहरी ॥ करी रसोई भूमि निहारि, जीव-जन्तु की बाधा टारि ॥१३
वेसरी छन्द दोब खोदि मति करी रसोई, तहां जीव की हिंसा होई। मलिन वस्तु अवलोकन होवे, सो थानक तजि औरहिं जोवै ॥१४ नरम पूजणी सों प्रतिलेखे, करै रसोई चर्म न देखें। माटी के वासण इक बारा, दूजी विरियां नाहीं अचारा ॥१५ जो दूजे दिन राखै कोई, सो नर सूद्रनि सदृश होई। मिटै न सरदी करै न कोई, मिट्टी के वासण की भाई ॥१६ उपजें जीव असंख्य जु तामें, बासी भोजन दूषण जामें। दया न किरिया उत्तम ताई, माटी के वासण में भाई ॥१७ तातें भले धातु के बासन, इह आज्ञा गावै जिन शासन । धातु-पात्र ही नीका मंजे, सोई अशन-अक्रिया भंजै ॥१८ रहै अशन को लेश जु कोई, सो बासन मांज्यौ नहिं होई। दया क्रिया को नास जु तामें, अन्न जोग उपजे जिय जामें ॥१९ मांजि धोय अर पूंछ जु राछा, राखै उन्जल निर्मल आछा। दया सहित करणी सुखदाई, करुणा बिन करणी दुखदाई ॥२० जीवनिकू सन्ताप न देवै, तब आचार तणी विधि लेवै। बिन जिनधर्मा उत्तम वंसा, देइ न लेय सुराक्ष नृशंसा ॥२१ श्रावक कुल किरिया करि युक्ता, तिनके करको भोजन युक्ता। अथवा अपने करको कोयो, आरम्भी श्रावक ने लीयो ॥२२ अन्यमती अथवा कुलहीना, तिनके करको कबहु न लीना। अन्य जाति जो भीटै कोई, तो भोजन तजवी है सोई ॥२३ नीली हरी तजे जो सारी, ता सम और नहीं आचारी। जो न सर्वथा छांड़ी जाई, तो प्रत्येक फला अलपाई ॥२४ हरी सुकावी योग्य न भाई, जामें दोष लगे अधिकाई। सूके पत्र औषधी लेवा, भाजी सूकी सब तजि देवा ॥२५ पत्र-फूल-कन्दादि भर्ख जे, साधारण फल मूढ चखें जे। ते नहिं जानों जैनी भाई, जीभ-लंपटी दुरगति जाई ॥२६ पत्र-फूल-कन्दादि सबै ही साधारण फल सर्व तजै ही। अर तुम सुनहु विवेकी भैय्या, भेले भोजन कबहु न लेया ॥२७ मात तात सुत बांधव मित्रा, भेले भोजन अति अपवित्रा। महा दोष लागै या मांही, आमिष को सो संशय नाहीं ॥२८
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