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श्रावकाचार-संग्रह
अपने भोजन के जे पात्रा, काहूकूं नहि देय सुपात्रा । बुधजन भेलें जीमें कैसें, भाषें श्री जिन नायक ऐसें ॥ २९ माहि सराय न भोजन भाई, जब श्रावक को व्रत्त रहाई । अन्तिज नीचनि के घर माहीं, कबहुँ रसोई करणी नाहीं ॥ ३० मांस त्यागि व्रत जो नि धारै, नीचन को संगर्ग न कारे । उत्तम कुलहू परमट धारी, तिनहू के भोजन नहि कारी ॥३१ जैन धर्म जिनके घट नाहीं, अन्य देव पूजा घर माहीं । तिनको छूयो अथवा करको, कबहू न खावै तिनके घरको ॥ ३२ कुल किरिया करि आप समाना, अथवा आप थकी अधिकाना । तिनको छुयौ अथवा करको भोजन पावन तिनके घरको ॥ ३३ अर जे छाणि न जाणें पाणी, अन्न वीण की रीति न जाणी । भक्षाभक्ष भेद नहि जानें, कुगुरु कुदेव मिथ्यामत मानें ॥ ३४ तिनतें कैसी पांति जुमित्रा, तिनको छूयो है अपवित्रा । चर्म रोम मल हाथी दन्ता, जेहिं कचकड़ा विमल कहन्ता ॥३५ तिनतें नहिं भोजन सम्बन्धा, यह किरिया को कह्यौ प्रबन्धा । जङ्गम जीवनि के जु शरीरा, अस्थि चर्म रोमादिक वीरा ॥३६ सब अपवित्रा जानि मलीना, थावर दल भोजन लीना । रोमादिक को सपरस होवे, सो भोजन श्रावक नहि जोवे ॥ ३७ नीला वस्त्र न भीटे सोई, नाहि रेशमी वस्त्र हु कोई । बिन धोया कपरा नाहीं, इह आचार जैनमत नाहीं ॥ ३८ दया लिया किरिया धारी, भोजन करें सोधि आचारी । पांच ठांव भोजन नाहीं, धोति दुपट्टा विमल धराहीं ॥३९ विन उज्ज्वलता भई रसोई, त्याग करे ताकू विधि जोई । पंचेन्द्री पसु हू को छूयो, भोजन तजे अविधितें हुयो || ४० सोधनी सब वस्तु जु लेई, वस्तु असोधी त्याग तेई । अन्तराय ओ परे कदापी, तजै रसोई जीव निपापी ॥४१
दया क्रिया बिन श्रावक कैसे, बुद्धि पराक्रम विन नृप जैसे ।
मांस रुधिर मल अस्थि जु, चामा तथा मृतक प्राणी लखि रामा ॥४२
अर जो वस्तु तजी है भाई, सो कबहू जो थाल धराई ।
तो उठ बैठे होउ पवित्रा, यह आज्ञा गावे जगमित्रा ॥ ४३ दान बिना जीमो मति बीरा, इह आज्ञा धारौ उर धीरा । बिना दान भोजन अपवित्रा, शक्ति प्रमाणें दान दो चित्रा ॥ ४४ मुनी अर्जिका श्रावक कोई, के सुश्राविका उत्तम होई । अथवा अन्नत सम्यकदृष्टी, जिंह उर अमृतधारा वृष्टी ॥४५ इन महाभक्ति करि देहो, तिनके गुण हिरदा में लेहो । error दुखित भुखित नर नारी, पसु पंखी दुखिया संसारी ॥४६
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