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दौलतराम-कृत क्रियाकोष अन्न वस्त्र जल सबको देना, नर भव पाये का फल लेना। तिर्यंचनिकू तृण हु देना, दान तणों गुण उरमें लेना ॥४७ भोजन करत ओंठि जिन छोड़ो, ओंठि खाय देही मति भांडौ। काहूकू उच्छिष्ट न देनो, यही बात हिरदै धरि लेनी ॥४८ अन्तराय जो पर कदापी, अथवा छीवें खल जल पापी। तब उच्छिष्ट तजन नहिं दोषा, इह भाषे वुधजन व्रत पोषा ॥४९ घृत दधि दूध मिठाई मेवा, जोहि रसोई माहिं जु लेवा। सो सब तुल्य रसोई जानों, यह गुरु आज्ञा हिरदै मानो ॥५० जहां बापरै अन्न रसोई, ताते न्यारे राखै जोई। जेतौ चहिये तेती ल्यावै, आवै, सो वर्तन में आवै ॥५१ पाका वस्तु रु भोजन भाई, एक भये वाहिर नहिं जाई । जल अर अन्न तणों पकवाना, सो भोजन ही सादृश जाना ॥५२ असन रसोई बाहर जावै. सो बढ वोपा नाम कहावे। मौन बिना भोजन वरज्या है, मौन सात श्रुत मांहि कह्या है ॥५३ भोजन भजन स्नान करता, मैथुन वमन मलादि करता। मूत्र करंता मौन जु होई, इह आज्ञा धारै बुध सोई ॥५४ अन्तराय अर मौन जु सप्ता, पालै श्रावक पाप अलिप्ता। अब जल की किरिया सुनि धर्मी, जे नहिं धारें तेहि अधर्मी ॥५५ नदी तीर जो होय मसाणा, सो तजि घाट जु निन्द्य वखाणा। और घाटको पाणी आणों, इह जिन आज्ञा हिरदै जाणों ॥५६ लोक भरत जे निजरमां आवै, तिनके ऊपरलौ जल ल्यावै। सरवर माहिं गांव को पानी, आवै सो सरवर तजि जानी ॥५७ गांवथकी जो दूरि तलाबा, ताका जल ल्यावौ सुभ भावा । तजो अपावन नदी किनारा, अब वापी की विधि सुनि वीरा ॥५८ जा माहीं न्हावै नर नारी, कपरा धोवहिं दांतुनि कारी। ता वापी को जल मति आनों, तहां न निर्मलताई जानों ।।५९ कपतणी विधि सुनहु प्रबीना, जहां भरै पानो कुल हीना। तहां जाहि मति भरवा भाई, तब ऊंचको धर्म रहाई ॥६० उत्तम नीच यहै मरजादा, यामें है कहुँ हू न विवादा। यवन अन्तिजा सबसे हीना, इनको कूप सदा तजि दीना ॥६१ अब तुम बात सुनो इक ओरे, शंका छांडि बखानी चौरै। धर्म रहित के पानी घर को, त्यागौ वारि अधर्मी नरको। बिन साधर्मी उत्तम बंसा, पर घर की छांडो जल अंसा ॥६२
दोहा जल के भाजन धातु के, जो होवें घर माहिं। पूंछ मांजि नित धोयवा, यामें संशय नाहिं ॥६३
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