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श्रावकाचार-संग्रह अर जे वासण गारके, गागर घट मटकादि । ते हि अल्प दिन राखिवी, इह आज्ञा जु अनादि ॥६४ राति सुकाय घराय वा, माटी वासण बीर। तिनमें प्रातहि छाणिवी, आछी विधिसों नीर ॥६५ जो नहिं राखै गारके, जल भाजन बुधिवान। राखे बासण धातु ही, सो अति ही शुचिवान ॥६६
चौपाई
इह तो जल की क्रिया बताई, अब सुनि जल-गालन विधि भाई। रंगे वस्त्र नहिं छानों नीरा, पहरे वस्त्र न गाली वीरा ॥६७ नाहिं पातरे कपड़े गालो, गाढे वस्त्र छांडि अघ टालो। रेजा दिढ आंगल छत्तीसा. लंबा अर चौरा चौबीसा ॥६८ ताको दो पुड़ता करि छानों, यही नांतणा की विधि जानों। जल छाणत इक बूदहु धरती, मति डारहु भार्षे महावरती ॥६९ एक बूद में अगणित प्राणी, इह आज्ञा गावै जिनवाणी। गलना चिउंटी धरि मति दाबी, जीव दयाको जतन धरावी ॥७० छाणे पाणी बहुते भाई, जल गलणा घोव चिव लाई। जीवाणी को जतन करो तुम, सावधान ह विनवे क्या हम ॥७१ राखहु जलकी किरिया शुद्धा, तब श्रावक व्रत लघौ प्रबुद्धा । जा निवांणको ल्यावौ वारी, ताही ठौर जिवाणी डारी ॥७२ नदी तालाब बावड़ी माहीं, बलमें जल डारो सक नाहीं। कूप माहिं नाखौ जु जिवाणो, तो इह बात हिये परवाणी ॥७३ ऊपरसू डारी मति भाई, दयाधर्म धारी अधिकाई । भवंरकली को डोल मंगावी, ऊपर नीचे डोरि लगावौ ॥७४ द्वैगुण डोल जतन करि वीरा, जीवाणी पधरावी धीरा । छाण्यां जल को इह निरधारा, थावरकाय कहें गणधारा ||७५ द्वे घटिका तीते जो जाकों, अणछाण्यां को दोष जु ताकों। तिक्त कषाय मेलि किय फासू, ताहि अचित्त कहें श्रुत-भासू ।।७६ पहर दोय बीते जो भाई, अगणित अस जीवा उपजाई । ड्योढ़ तथा पौणा दो पहरा, आगे मति वरती बुधि-गहरा ॥७७ भात उकाल उष्ण जल जो है, सात पहर ही लेणो सो है। बीतें बसु जामा जल उष्णा, स भरिया इह कहै जु विष्णा ॥७८ विष्णु कहावें जिनवर स्वामी, सर्व व्यापको अन्तर-यामी। या विधि पाणी दिवसें पीवी, निसिकू जल छाड़ो भवि जीवी ।।७९ अशन पान बर खादिम स्वादी, निशि त्यागे बिन व्रत सब वादी। दया बिना नहिं व्रत जु कोई, निश भोजन में दया न होई ।।८०
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