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श्रावकाचार-संग्रह
इह भव पर भव को भय नाही, मरण वेदना भय न धराहीं। हमरो रक्षक कोळ नाहीं, इह संशय नाहीं घट माहीं ॥१०१ सबको रक्षक आयु जु कर्मा, के जिनवर जिनवर को धर्मा । और न रक्षक कोई काकों, इह गुरु गायो गाढ जु ताकों ॥१०२ बर नहिं चोर तनों भय जाकों, अपनो निज धन पायो ताकों। चिद धन चोरयो नांही जावे, तातें चित्त अडोल रहावै ॥१०३ अर नहिं अकस्मात भय कोई, जिन-सम लखियो निज तन जोई। चेतन रूप लख्यौ अविनासी, तातें ज्ञानी है सुख रासी ॥१०४ काहू को भय तिनकों नाहीं, भय-रहिता निरबैर रहा हीं। सप्त भया त्यागे गुण होई, सप्त बिसन तजियो शुभ जोई ॥१०५ सप्त सप्त मिलि चौदा गुन ए, मिलि पचीसा गुणताल जुए। पंच दुरगंछा भाव कब हो, नहिं मिथ्यात सराह करही। नहीं स्तवन मिथ्यादृष्टी को, यह लक्षण सम्यक दृष्टी को ॥१०७ पंच अतीचारनि । त्यागा, सो हपंच गुणा बड़ भागा। मिलि गुणताली चौवालीसा, गुणा होंहि भाषे जगदीसा ॥१०८ “इनकूधारै सम्यकती सो, भव भ्रम तजि पावे मुक्ती सो। ए गुन मिथ्याती के नाही, आतमज्ञान न मथ्या माहीं ॥१०९
उक्तं च गाथा मयमूढमणायदणं संकाइवसण्णभयमईयारं ।
एहिं चउदालेदै ण संति ते हंति सट्ठिी ॥१ बर्थ-जिनके अष्ट मद नाहीं, तीन मूढता नाही, षट आयतन नाहीं, शंकादि अष्ट मल नाही, सप्त ब्यसन नाही, सप्त भय नाहीं, पंच अतीचार नाही, ए चवालीस नाही ते सम्यकदृष्टि कहे।
बोहा व्रत के मूल जु मूल गुण, सम्यक सबको मूल । कह्यो मूलगुण को सुजस, सुनि व्रतविधि अनुकूल ॥११० इति क्रियाकोषे मूलगुण निरूपणम् ।
बारह व्रत वर्णन
वोहा
द्वादस व्रतनि की सुविधि, जा विधि भाषी वीर । सो भाषों जिन गुन जपी, जे धारे ते धीर ॥१ द्वादस व्रत माहें प्रथम, पंच अणुव्रत सार । तीन गुण व्रत चारि पुनि, शिक्षा व्रत आचार ॥२
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