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दौलतराम-त क्रियाकोष छह जु अनायतनी बुधि त्यागे, त्याग मिथ्यामत जिनमत लागे। कुगुरु कुदेव कुधर्म बड़ाई, अर उनके दासनि की भाई ॥८३ कबहुं करै नहिं सम्यकदृष्टी, जे करि ते मिथ्यादृष्टी। शंका आदि आठ मल छांडे करि, परपंच न आपो भाडे || जिनवच में शंका नहिं ल्यावै, जिनवाणी उर धरि दिढ भावे । जग की वांछा सब छिटकावे, निःस्पृह भाव अचल ठहरावें ॥८५ जिनके अशुभ उदै दुख पीरा, तिनको पीर हरै वर वीरा। नाहि गिलानि धरै मन माहीं, सांची दृष्टि धरै शक नाहीं ॥८ कबहुं परको दोष न भाखै, पर उपगार दृष्टि नित राखे । अपनो अथवा परको चित्ता, चल्यो देखि थांभै गुणरत्ता ।।८७ थिरीकरण समकित को अंगा, धारै समकित धार अभंगा। जिनधर्मीसू अति हित राखे, सो जिनमारग अमृत चाखे ॥८८ तुरत जात बछरा परि जैसें, गाय जीव देय है तैसें। साधर्मी परि तन धन बार, गुण वात्सल्य घरै अघ ढारे ॥८९ मन वच काय करै वह ज्ञानी, जिनदासनि को दासा जानी। जिनमारग की करें प्रभावन, भावे ज्ञानी चउ विधि भावन ।।९. सब जीवनि में मंत्रीभावा, गुणवंतनिकू लखि हरसावा । दुखी देखि करुणा उर आने, लखि विपरीत राग न ठानें ।।९१ दोषहु माहीं है मध्यस्था, ए चउ भावन भावै स्वस्था। जिन चैत्याले चैत्य करावे, पूजा अर परतिष्ठा भावे ॥१२ तीरथ जात्रा सूत्र सु भक्ती, चउविधि संघ सेव है युक्ती। एहै सप्त क्षेत्र परिसिद्धा, इनमें खरचै धन प्रतिबुद्धा ।।९३ जीरण चैत्यालय की मरमती, करवावं, अर पुस्तक की प्रति । साधर्मी कू बहु धन देवे, या विधि परभावन गुन लेवे ॥९४ कहे अंग ए अष्ट प्रतक्षा, नाहिं धरवौ सोई मल लक्षा। इन अंगनि करि सोझै प्रानी, तिनको सुजस करै जिन वानी ।।९५ जीव अनन्त भये भवपारा, को लग कहिये नाम अपारा। कैयक के शुभ नाम बखानों, श्रुत-अनुसार हिए में आनों IR६ अंजन और अनन्तमती जो, राव उढायन कर्म हतीजो। रेवति राणी धर्म-गढ़ासा, सेठ जिनेन्द्र भक्त बघ नासा ॥९७ पर औगुन ढांके जिह भाई, जिनवर की आज्ञा उर लाई। वारिषेण ओ विष्नुकुमारा, वजकुमार भवोदबि तारा ॥८ अष्ट अंग करि अष्ट प्रसिद्धा, और बहुत हूए नर सिद्धा। अठ मद त्यागि अष्ट मल त्यागा, तीन मूढ़ता त्यागि सभागा ॥९९ षट जु अनायतना को तजिवी, ए पच्चीस महागुण मजिवी । अर तजिवो तिनकू भय सप्ता, निर्भय रहिवी दोष अलिप्ता ॥१००
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