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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
हिंसा मृषा अदत्तधन, मैथुन परिग्रह साज। एकदेश त्यागी गृही, सब त्यागी रिषिराज ॥३ सब अत्तनि के आदिही. जीवदया-व्रतसार। दया सारिसी लोक में, नहिं दूजो उपगार ||४ सिद्ध समान लख्यौं जिनें, निश्चय आतम राम । सकल आतमा आपसे, लख चेतना-धाम ॥५ ते सब जीवनि की दया, करें विवेकी जीव । मन वच तन करि सर्व को, शुभ वांछ जु सदीव ॥६ सुख सों जीवो जीव सहं, क्लेश कष्ट मति होह । तजी पाप को सर्व ही, तजी परस्पर द्रोह ॥७ काहू को हु पराभवा, कबहु करी मति कोइ । इह हमरी बांछा फलौ, सुख पावो सह लोइ ॥८ सबके हितकी भावना, राखै परम दयाल । दयाधर्म उरमें धरी, पावै पद जु विशाल ॥९ थावर पंच प्रकार के, चउविधि स परवानि । सबसों मैत्री भावना, सो करुणा उर आनि ॥१० पृथीकाय जलकाय का, अग्निकाय अर वाय । काय बहुरि है वनस्पति, ए थावर अधिकाय ।।११ वे इन्द्री ते इन्द्रिया, चउ इन्द्रिय पंचेन्द्रि । ए त्रस जीवा जानिये, भावें साधु जितेन्द्रि ॥१२ कृत-कारित-अनुमोद करि, धरै अहिंसा जेह । ते निर्वाण पुरी लहै, चउ गति पाणी देह ॥१३ निरारंभि मुनि की दशा, तहां न हिंसा लेस। छहूं काय पीराहरा, मुनिवर रहित कलेश ॥१४ गृहपति के गृहजोगते, कछु आरम्भ जु होइ । ताते थावरकाय को, दोष लगै अघ सोइ ॥१५ पै न करे त्रस घात वह, मन वच तन करि धीर । त्रस कायनि को पीहरा, जाने परकी पीर ॥१६ विना प्रयोजन वह सुधी, थावर हू पीरै न । जो निशंक थावर हने जिनके जिननी रेन ॥१७ हिंसाको फल दुरगती, दया स्वर्ग-सुख दे। पहुंचावे पुनि शिवपुरे, अविनाशी जु करेइ ॥१८ दया मूल जिन धर्म को, दया समान.न और । एक अहिंसा व्रतही, सव व्रतनि को मोर ॥१९ यम नियमादिक बहुत जे, भावे श्री जिनराय । ते सहु करुणा कारणें, और न कोई उपाय ॥२०
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