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बावकाचार-संग्रह
बिना जैन मत यह दया, दूजे मत दीखै न । दया मई जिनदास है, हिंसा विधि सीखे न ॥२१ दया दया सब कोउ कहै, मर्म न जाने मूर । अणछान्यूं पाणी पिवे, ते हि दयातें दूर ॥२२ दया भली सबही रटे, मेद न पावै कोय । वरते अणगाल्यो उदक, दया कहां ते होय ॥२३ दया बिना करणी वृथा, यह भावे सब लोक । न्हावै अणगाले जलहि, बांधे अघ के धोक ॥२४ छायूं जल घटिका जुगल, पाछे अगाल्यो होय । विना जैन यह बारता, और न जाने कोय ॥२५ दया समान न धर्म कोउ, इह गावे नर-नारि। निशा माहि भोजन करें, जाहि जमारो हारि ॥२६ दया जहां ही धर्म है, इह जाने संसार। पै नहिं पावै भेदकों, भखें अभक्ष आहार ॥२७ दया बड़ी सब जगत में, धरै न मूढ़ तथापि । परदारा परधन हरे, परै नरक में पापि ।।२८ दया होय तो धर्म है, प्रगट बात है एह ।। तजे न तोहू द्रोह पर, घरै न धर्म सनेह ।।२९ व्रत करे पुनि मूढधी, अन्न त्यागि फल खाय । कंदमूल भक्षण करै, सो व्रत निष्फल जाय ॥३० दया धर्म कीजे सदा, इह जपे जग सर्वे । नहिं तथापि सब सम गिने, हने न आढू कर्म ॥३१ परम धर्म है यह दया, कहै सकल जन इह । चुगली-चांटी नहिं तजे, दया कहां ते लेह ॥३२ दया व्रत के कारणे, जे न तजें आरम्भ । तिनके करुणा होय नहिं, इह भाषे परब्रह्म ॥३३ दया धर्म को छांडिके. जे पश घात करेप । ते भव भव पीड़ा लहै, मिथ्या मारग सेय ॥३४ दया ब्रता- सब मता, समझ न काहू मांहि । धर्म गिने हिंसा विर्षे, जतन जीव को नांहि ॥३५ दया नहीं परमत विर्षे, दया जैनमत मांहि । विना फैन यह जैन है, यामें संशय नांहि ॥३६ दया न मिथ्या मत विर्षे, कहै कहां लों वोर । करुणा सम्यक भाव है, यह निश्चय धरि धीर ॥३७ काहे के वे देवता, करें जु मांस अहार। ते चंडाल बखानिये, तथा श्वान मार्जार ॥३८
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