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दौलतराम-कृत क्रियाकोष देवनिको आहार ह्व, अमृत और न कोय । मांसाशी देवानिकू, कहै सु मूरखि होय ॥३९ मंगल कारण जे जणा, जीवनि को जु निपात । करें अमङ्गल ते लहें, होय महा उतपात ॥४० जे अपने जीवे निमित, करे औरकों नास । ते लहि कुमरण वेग ही महें नरक कों वास ॥४१ मद्य मांस मधु खाय करि, जे बांधे अघ कर्म । ते काहे के मिनख हैं, इह भाखे जिनधर्म ॥४२ कन्दमूल फल खाय करि, करै जु वनको वास । तिनको वनवासा वृथा, होय दयाको नास ॥४३ बिना दया तप है कुतप, जाकरि कर्म न जाय । किसक मिथ्यामत धरा, नरक निगोद लहाय ।। ४४ जैसो अपनों आतमा, तैसे सबही जीव । यह लखि करुणा आदरो, भाखें त्रिभुवन-पीव ॥४५
छन्द जोगीरासा काहे के ते तापस, करुणा नाहिं धरावें। कर अपनी आरम्भ सपष्टा, जीव अनेक जरावें॥ जे तजि कपड़ा तपके कारण, धारें शठमति चर्मा । ते न तपस्वी भवदधि कारण, बांधे अशुभ जु कर्मा ॥४६ रिषि तो ते जे जिनवर-भक्ता, नगन दिगम्बर साधा। भव तनु भोग थकी जु विरक्ता, करै न थिर चर बाधा ।। मैत्री मुदिता करुणा भावा मध्यस्था जु धारै। राग दोष मोहादि अभावा ते भवसागर तारै ॥४७ बिना दया नहिं मुनिवत होई, दया विना न गृही है। उभय धर्म को सरवस करुणा जा विन धर्म नहीं है। दया करौ मुखसब भाखें भेद, न पावे पूरा। बासी भोजन भखि करि, भोदू रहे धर्म तें दूरा ॥४८ बासी भोजन माहि जीव बह, भखें दया नहिं होई। दया बिना नहिं धर्म न वत्ता, पावे दुरगति सोई ।। अत्थाणा संधाण मथाणा, कांजी आदि आहारा। करें विवेक बाहिरा कुबुधी, तिनके दया न धारा ॥४९ मांसाशी के घरको भोजन, करें कुमति के धारी। तिनके घट करुणा कह कैसे, कहां शोध आचारी ।। तातो पाणी आठ हि पहरा, आगें त्रस उपजाही। ताको तिनका सुधि बुधि नाहीं, दया कहां तिन माहीं ॥५०
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