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श्रावकाचार-संग्रह निशिको पीस्यो निसि को रांध्यौ थींधौ सीधौ खावै । हरितकाय रांधी सब स्वादै, दया कहां तें पावै ।। चर्म-पतितं घृत तेल जलादिक, तिसमें दोष न मानें । गिनें न दोष हींग में मूढा, दया कहां ते आने ॥५१ हाटें बिकते चून मिठाई, कहें तिने निरदोषा। भखें अजोगि अहार सबै ही, दया कहां तें पोषा ॥ दूध दही अरु छाछि नीर को, जिनके कछु न विचारा। दया कहां है तिनके भाई, नहीं शुद्ध आचारा ॥५२ सूडा नहीं मल मूत्रादिक की, ढोर समाना तेई । तिनकू जो नर जैनी जाने, ते नहिं शुभ मति लेई ।। बाधक जिन शासन सरधाके, साधकता कछु नाहीं। साधु गिनें तिनकं जे कोई, ते मुरख जग माहीं ।।५३ एक बारको नियम न कोई, बार-बार जल पाना । बार-बार भोजन को करिवो, तिनके व्रत्त न जाना। अस काया को दूषण जामें, सो नहिं प्रासुक कोई। भखै असूत्री शठमति जोई, नाहीं ब्रत धर होई ॥५४ दयाधर्म को परकाशक है, जिन मन्दिर जगमाहीं। ताहि न पूजें पापी जीवा, तिनके समकित नाहीं ॥ कारण आतम-ध्यान तणों है, श्रीजिन प्रतिमा शुद्धा । नाहि न बन्ने निन्द जु तेई, जानहु महा अबुद्धा ॥५५ बूढ़े नरक मझार महा शठ, जे जिन प्रतिमा निंदे । जाहिं निगोद विवेक-वित्तीता, जे जिनगृह नहिं वन्दें । अज्ञानी मिथ्याती मूढा, नहीं दया को लेशा। दयावन्त तिनकू जे भाणे, ते न लहें निज देशा ॥५६
दोहा सुर नर नारक पशुगती, ए चारों परदेश । पंचमगति निज देश है, यामें भ्रांति न लेश ॥५७ पंचमगति की कारणा, जीवदया जग माहि । दया सारिखौ लोक में, और दूसरी नाहिं ॥५८ दया दोय विधि है भया, स्व-पर दया श्रुत माहिं । सो धारौ दृढ़ चित्त में, जाकरि भव-भ्रम जाहिं ॥५९ स्वदया कहिये सो सुधी, रागादिक अरि जेह । हने जीव की शुद्धता, टारि तिन्हें शिव लेह ॥६० प्रगट कर निज शुद्धता, रागादिक मन मोरि । निज आतम रक्षा करे, डारे कर्म जु तोरि ॥६१
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