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दौलतराम-कृत क्रियाकोष
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सो स्वदया भाषे गुरू, हरै कर्म-विस्तार । निजहि बचावै कालतें, करै जीव निस्तार ॥६२ षट कायाके जीव सह, तिनते हेत रहाय । वैरभाव नहिं कोइर॑, सो पर-दया कहाय ॥६३ दया मात सब जगत की, दया धर्म को मूल । दया उधारै जगत ते, हरै जोव की भूल ॥६४ दया सुगुन की बेलरी, दया सुखन की खान । जीव अनन्ता सीजिया, दयाभाव उर आन ॥६५ स्व-पर दया दो विधि कही, जिनवाणी में सार । दयावन्त जे जीव है, ते भावे भवपार ॥६६
सवैया इकतीसा सुकृत की खानि इन्द्रपुरी की निसेंनी जानि, पापरज खंडन कों पौनराशि पेखिये । भवदुख-पावक बुझाय व कू मेघमाला, कमला मिलायवे को दूतो ज्यविसेखिये ।। मुकति-बधूसों प्रीति पालिवे को आलो सम, कुगति के द्वार दिढ़ आगलसी देखिये। ऐसी दया कीजै चित्त तिहूँ लोक प्राणी हित, और करतूति काहू लेखे में न लेखिये ॥६७
दोहा जो कहं पाषाण जल, माहि तिरै अर भान । ऊगै पश्चिम की तरफ, दैवयोग परवान ॥६८ शीतल गुन ह अगनि में, धरा पीठ उलटेय । तोहू हिंसा-कर्मतें, नाहीं शुभ गति लेय ॥६९ जो चाहै हिंसा करी, धर्म मुकति को मूल । सो अगनीसू कमल-वन, अभिलाषै मति भूल ॥७० प्राणि-घात करि जो कुधी, बांछै अपनी वृद्धि । सो सूरज के अस्त तें, चाहे वासर शुद्धि ।।७१ जो चाहै व्रत धर्म को, करै जीव को नास । सो शठ अहिके वदन ते, करै सुधा की आस ॥७२ धर्म बुद्धि करि जो अबुध, हनै आपसे जीव । सो विवाद करि जस चहै, जल-मंथन तें घीव ॥७३ जैसे कुमतो नर महा, काल कूटकू पीय । जीवौ चाहै जीव हति, तैसे श्रेय स्वकीय ॥७४
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