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श्रावकाचार-संग्रह करि अजीर्ण दुर्बुद्धि जो, इच्छे रोग-निवृत्ति । तैसे शठ पर-घात करि, चाहै धर्म-प्रवृत्ति ।।७५ दया थकी इह भव सुखी, पर-भव सब सुख होय । सुरग मुकति दायक दया, धारै उधरै सोय ॥७६ इन्द नरिन्द फणिन्द अर, चंद सूर अहमिन्द । दया थकी इह पद लहे, होवै देव जिणंद ॥७७ भव सागर के पार है, पहुंचे पुर निर्वान । दया तणों फल मुख्य सो, भाषे श्री भगवान ॥७८ हिंसा करिकै राज-सुत, सुबल नाम मति-हीन । इह भव पर भव दुख लह्यो, हिंसा तजौं प्रवीन ॥७९ चौदसिके इक दिवस की, दया धारि चंडार । इह भव नृप पूजित भयौ, लह्यौ स्वर्ग-सुख सार ।।८० जे सीझे जे सीझि हैं, ते सब करुणा धार । जे बूढ़े जे बूढ़ि हैं, ते सब हिंसा कार ॥८१ अतीचार भजि व्रत तजि, करुणा तिनतें जाय । बध बंधन छेदन बहुरि, बोझ धरन अधिकाय ॥८२ अन्न पान को रोकिबी, अतीचार ए पंच । त्यागी करुणा धारिक, इनमें दया न रंच ।।८३ हिंसा तुल्य न पाप है, दया समान न धर्म । हिंसक बूड़े नरक में, बांधे अशुभ जु कर्म ।।८४ हुती धन श्री पापिनी, वणिक-नारि व्यभिचारि । गई नरक में पुत्र हति, मानुष जन्म बिगारि ॥८५ हिंसा के अपराधते, पापी जोव अनंत । नये नरक पाये दुखा, कहत न आवे अंत ॥८६ जे निकसे भव-कूपते, ते करुणा उर धारि । जे बूड़े भव कूपते, ते सब हिंसा कारि ॥८७ महिमा जीव दया तनी, जानें श्री जगदीश । गणधर हू कहि ना सकें, जे चउ ज्ञान अधीश ॥८८ कहि न सकें इन्द्रादिका, कहि न सकें अहमिंद्र । कहि न सकें लोकान्तिका, कहि न सकें जोगीन्द्र ॥८९ कहि न सकें पाताल-पति, अगणित जीभ बनाय । सो महिमा करुणा तणी, हम पे बरणि न जाय ॥९० दया मात को आसरो, और सहाय न कोय । करि प्रणाम करुणा व्रतें, भाषों सत्य जु सोय ।।९१
इति दयावत निरूपण
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