________________
Jain Education International
दौलतराम - कृत क्रियाकोब
नहि त्रिलोक में दूसरो, तप सो ताप-निवार ।
त्रिविध ताप से ताप नहि, जरा जन्म मृति धार ॥३९ इच्छासी न अपूरणा, पूरी होइ न सोइ । नहि इच्छा जु निरोध सी, तपस्या दूजी होइ ॥ ४० त्याग समान न दूसरो, जग-जंजाल निवार । नहीं भोग- अनुराग सो, नरकादिक दातार ॥४१ नहीं अकिञ्चन सारिखौ, निरभय लोक मँझार । नर परिगरही सारिखौ, भय-रूप न निरधार ॥४२ परिग्रह सोनहि पापगृह, नहि कुशील सो काद । ब्रह्मचर्य सो और नहिं ब्रह्मज्ञान को वाद ॥४३ नहीं विषय रस सारिखौ, नीरस त्रिभुवन माहिं । . अनुभव रस आस्वाद सो, सरस लोक में नाहि ॥४४ अयासी नहि दुष्टता, अनृत सो न प्रपंच । छल नहि चोरी सारिखी, चोर समान न टंच ॥४५ हिंसक सोनहि दुर्जन, हरै पराये प्राण । नहि दयाल सो सज्जना, पीरा हरै सुजाण ॥४६ नहि विश्वास घाती अवर, झूठे नर सो कोय । नहि व्यभिचारी सो अनाचारी जग में होय ॥४७ विकथा सो न प्रलाप है, आरति सो न विलाप । पाप न द्वय नय थाप सो, जिनवर तो न प्रताप ॥४८ सन्ताप न कोई सोक सो, लोक न सिद्ध समान । धन प्राणन के नाश सो, और न शोक बखान ॥४९ जड़ जिय सो अभिलाष नहि, गुण-मणि सो न मिलाप । श्री जिनवर गुणगान सो, और न कोई अलाप ॥ ५० नहि विकथा नारीनिसी, कथा न धर्म समान । नहि आरति भोगात्तिसी, दुरगति दाई आन ॥ ५१ ॐकार समान नहि सर्व शास्त्र की आदि । महा मङ्गलाचार है, यह उपचार अनादि ॥ ५२ नाद न सोऽहं सारिखो, नहीं स्वरस सो स्वाद । स्यादवाद सिद्धान्त सो, और नहीं अविवाद ॥५३ एक एक नय पक्ष सो, और न कोई वाद । नाहि विषाद विवाद सो, निद्रा सो न प्रमाद ॥५४ स्त्यान गृद्धि निद्रा जिसी, निद्रा निद्य न और । परनिन्दा सो दोष नहि, भाषें जिन जग-मौर ॥५५ निन्दा चउविधि संघ की, ता सम अघ नहि कोय । नाहि प्रसंसा जोगि कोउ. जिन आगम सो होय ॥५६
For Private & Personal Use Only
२८३
www.jainelibrary.org