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श्रावकाचार-संग्रह
सिद्धक्षेत्र सो क्षेत्र नहिं. सर्व लोक के सीस। यात्री जतिवर से नहीं, पहुँचै तहां मुनीस ॥२१ षोड़सकारण सारिखा, और न कारण कोय । तीर्थेश्वर पद सारिसा और न कारज होय ॥२२ नाहीं दर्शन शुद्धि सा, षोड़श माहीं जान । केवल रिद्धि बराबरी, और न रिद्धि बखान ।।२३ नहिं लक्षण उपयोग से, आतम तें जु अभेद । नाहिं कुलक्षण कुबुधि से, करै धर्म को छेद ॥२४ धर्म अहिंसारूप के, भेद अनेक बखान । नहिं दशलक्षण धर्म से, जग में और निधान ॥२५ क्षमा उत्तमा सारिखो और दूसरी नाहिं । दशलक्षण में मुख्य है, क्रोध-हरण जगमाहिं ॥२६ नीर न शांति स्वभाव सो, अगनि न कोप समान । मान समान न नीचता, नहिं कठोरता आन ॥२७ मानी को मन लोक में, पाहन-तुल्य बखान । मान समान अज्ञान नहिं भाखें श्री भगवान ॥२८ निगरवभाव समान सो, मदु नहिं जगमें और । हरै समस्त कठोरता, है सब को सिरमौर ।।२९ कीच न कपट समान को, वक्र न कपट समान । सरल भाव सो उज्जवल, न सूधौ कोइ न आन ॥३० आपद लोभ समान नहि, लोभ समान न लाय । लोभ समान न खांड़ है, दुख औगुन समुदाय ॥३१ नहिं सन्तोष समान धन, ता सम सुक्ख न कोय। नहिं ता सम अमृत महा, निर्मल गुण है सोय ॥३२ श्रेष्ठ नहि निर्मल भाव सो, जहां न अशुभ सुभाव । नाहिं मलिन परिणाम सो, दूजौ कोई कुभाव ॥३३ सन्देह न अयथार्थ सो, जाकरि भर्म न जाय । नहिं यथार्थ सो लोक में, निस्सन्देह कहाय ॥३४ नाहिं कलंक कषाय सो, भाषे श्री भगवन्त । निःकलंक न अकषाय से, करै कर्म को अन्त ॥३५ शुचि नहिं मन-शुचि सारिखी, करै जीव को शुद्ध । अशुचि नहीं मन-अशुचिसी, इह भाषे प्रतिबुद्ध ॥३६ नहीं असंजम सारिखौ, जगत डबोवनहार । नहिं संचय सो लोक में, ज्ञान बढ़ावन हार ॥३७ बंचक नहिं परपंच से, ठगें सकल कों सोइ । विष-बांछना सारिखी, नांहि ठगौरी कोइ ॥३८
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